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Bhasha Ka Samajshashtra

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
डॉ सुभाष शर्मा
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
डॉ सुभाष शर्मा
Language:
Hindi
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Hardback

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SKU 9789387919044 Category
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276

भाषा का समाजशास्त्र –
इस पुस्तक का उद्देश्य है कि कतिपय भाषा वैज्ञानिक सिद्धान्तों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाये। जैसे, भाषा की पारिस्थितिकी, भाषा का समाजशास्त्र, बहुभाषावाद आदि। इसके अलावा पैशाची भाषा पर वाद-विवाद-संवाद प्रस्तुत किया गया है जो संकेत करता है कि कैसे हमारी भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। ‘जीवन की भाषा और भाषा के जीवन’ नामक अध्ययन में बिहार में प्रचलित हिन्दी के रंग को बख़ूबी दिखाया गया है किन्तु यह स्पष्ट किया गया है कि हिन्दी का यह स्वरूप ‘मानक’ हिन्दी से भले भिन्न है, फिर भी उसकी सोंधी गन्ध और सुस्वाद अन्य क्षेत्रों से अलग हटकर है। यह विविधता स्वस्थ एवं जीवन्त हिन्दी की भी परिचायक है। आजकल लोक भाषाएँ (मौखिक) अधोगति को प्राप्त हो रही हैं, इसलिए उनमें संग्रहीत देशज ज्ञान और लोक संस्कृति कलाओं का भी लोप हो रहा है जो राष्ट्र से लेकर समुदाय तक के लिए चिन्ता एवं चिन्तन का विषय है क्योंकि तमाम विकसित देश आर्थिक रूप से भले ज़्यादा समृद्ध हैं किन्तु भारत जैसे एशिया, लातिन, अमरीका और अफ्रीका के तमाम विकासशील देश प्रकृति, संस्कृति और भाषा के मामले में काफ़ी समृद्ध हैं। इसीलिए अन्य दो अध्यायों में भाषायी विविधता, प्राकृतिक विविधता और सांस्कृतिक विविधता से मानव जीवन के सशक्तीकरण का सवाल उठाया गया। चार अध्यायों में स्थानीय क्षेत्रीय भाषाओं की व्यथा-कथा, हिन्दी भाषा की दशा और दिशा, मॉरिशस में भोजपुरी हिन्दी, तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के ज़रूरी मुद्दों का सांगोपांग विवेचन किया गया है। अन्तिम अध्याय में भाषाओं के जीवन-मरण की चर्चा (गहनता और विस्तार से) की गयी है और ख़तरे में पड़ी भाषाओं को बचाने के उपायों की भी चर्चा की गयी है।

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Description

भाषा का समाजशास्त्र –
इस पुस्तक का उद्देश्य है कि कतिपय भाषा वैज्ञानिक सिद्धान्तों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाये। जैसे, भाषा की पारिस्थितिकी, भाषा का समाजशास्त्र, बहुभाषावाद आदि। इसके अलावा पैशाची भाषा पर वाद-विवाद-संवाद प्रस्तुत किया गया है जो संकेत करता है कि कैसे हमारी भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। ‘जीवन की भाषा और भाषा के जीवन’ नामक अध्ययन में बिहार में प्रचलित हिन्दी के रंग को बख़ूबी दिखाया गया है किन्तु यह स्पष्ट किया गया है कि हिन्दी का यह स्वरूप ‘मानक’ हिन्दी से भले भिन्न है, फिर भी उसकी सोंधी गन्ध और सुस्वाद अन्य क्षेत्रों से अलग हटकर है। यह विविधता स्वस्थ एवं जीवन्त हिन्दी की भी परिचायक है। आजकल लोक भाषाएँ (मौखिक) अधोगति को प्राप्त हो रही हैं, इसलिए उनमें संग्रहीत देशज ज्ञान और लोक संस्कृति कलाओं का भी लोप हो रहा है जो राष्ट्र से लेकर समुदाय तक के लिए चिन्ता एवं चिन्तन का विषय है क्योंकि तमाम विकसित देश आर्थिक रूप से भले ज़्यादा समृद्ध हैं किन्तु भारत जैसे एशिया, लातिन, अमरीका और अफ्रीका के तमाम विकासशील देश प्रकृति, संस्कृति और भाषा के मामले में काफ़ी समृद्ध हैं। इसीलिए अन्य दो अध्यायों में भाषायी विविधता, प्राकृतिक विविधता और सांस्कृतिक विविधता से मानव जीवन के सशक्तीकरण का सवाल उठाया गया। चार अध्यायों में स्थानीय क्षेत्रीय भाषाओं की व्यथा-कथा, हिन्दी भाषा की दशा और दिशा, मॉरिशस में भोजपुरी हिन्दी, तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के ज़रूरी मुद्दों का सांगोपांग विवेचन किया गया है। अन्तिम अध्याय में भाषाओं के जीवन-मरण की चर्चा (गहनता और विस्तार से) की गयी है और ख़तरे में पड़ी भाषाओं को बचाने के उपायों की भी चर्चा की गयी है।

About Author

सुभाष शर्मा - जन्म: 20 अगस्त, 1959, सुल्तानपुर (उ.प्र.)। शिक्षा: एम.ए. (द्वय), एम.फिल., पीएच.डी. (समाजशास्त्र)। प्रकाशित कृतियाँ: 'बेज़ुबान' (कहानी-संग्रह), विभिन्न पत्रिकाओं में कई कहानियाँ प्रकाशित। 'अंगारे पर बैठा आदमी', 'ज़िन्दगी का गद्य', 'हम भारत के लोग' (कविता संग्रह)। भारत में बाल मज़दूर, भारतीय महिलाओं की दशा, भारत में शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा और समाज, हिन्दी समाज, कायान्तरण तथा अन्य कहानियाँ (फ्रांत्स काफ़का की कहानियों का अनुवाद), मवेशीबाड़ा (जार्ज ऑर्वेल के उपन्यास 'द एनिमल फार्म' का अनुवाद), अँधेरा वहाँ भी है (विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ), भारत के महान वैज्ञानिक, व्हाइ पीपल प्रोटेस्ट, डायलेक्टिक्स ऑफ़ एग्रेरियन डेवलपमेंट, कुँअर सिंह एवं 1857 की क्रान्ति तथा भारत में मानवाधिकार। कई कहानियों का बांग्ला, उर्दू, अंग्रेज़ी, ओड़िया आदि में अनुवाद। पुरस्कार: बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, राजभाषा विभाग, बिहार सरकार से दो पुरस्कार प्राप्त।

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