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Bharatiya Itihas Ke Mahattvapoorn Padav : Punarvyakhya
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Bharatiya Itihas Ke Mahattvapoorn Padav : Punarvyakhya
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
इरफान हबीब, सम्पादन एवं अनुवाद रमेश रावत
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
इरफान हबीब, सम्पादन एवं अनुवाद रमेश रावत
Language:
Hindi
Format:
Paperback
₹299 ₹209
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ISBN:
SKU
9789355184658
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
248
इस संग्रह में इरफान हबीब के आठ निबन्ध संकलित हैं। निबन्धों में विषय का वैविध्य तो है, किन्तु इस अर्थ में एकसूत्रता है कि सभी निबन्धों में कमोवेश इस धारणा अथवा प्रचार के विरुद्ध एक बहस की गयी है कि भारतीय समाज परिवर्तनहीन और जड़ परम्पराओं से ग्रस्त रहा है। ‘भारतीय इतिहास की व्याख्या’ उनका महत्त्वपूर्ण निबन्ध है। इसमें वे स्थापित करते हैं कि इतिहास का पुनः पाठ एक निरन्तर प्रक्रिया है। हम अतीत की समीक्षा इस आशा में करते हैं कि शायद वह हमारे वर्तमान के लिए भी कुछ उपयोगी हो।
यद्यपि जातीय व्यवस्था के विषय में उन्होंने अपने लेखों में जगह-जगह टिप्पणियाँ की हैं, किन्तु ‘भारतीय इतिहास में जाति’ लेख में उन्होंने जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में विस्तार से विचार किया है-विशेष रूप से लुई इयूमाँ की पुस्तक ‘होमो हायरार्किकस’ के सन्दर्भ में। वे जाति की विचारधारा को शुद्ध रूप से ब्राह्मणवादी नहीं मानते। जाति-प्रथा हमेशा वर्गीय शोषण का आधार रही, जिसका सर्वाधिक लाभ शासक वर्ग ने उठाया। ‘ब्रिटिश-पूर्व भारत में भू-सम्पत्ति का सामाजिक वितरण : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण’ शीर्षक लेख में इरफ़ान हबीब ने भू-सम्पत्ति की विभिन्न अवस्थाओं और वर्गीय शोषण के विभिन्न रूपों का अध्ययन किया है। प्रस्तुत संग्रह में ‘मार्क्सवादी इतिहास-लेखन’ के सम्बन्ध में उनके तीन महत्त्वपूर्ण लेख हैं। ‘मार्क्सवादी इतिहास विश्लेषण की समस्याएँ’ लेख में मार्क्स की इतिहास-दृष्टि की पड़ताल की है। मार्क्स ने भारतीय समाज की निष्क्रियता और परिवर्तनहीनता की व्याख्या जातियों में जकड़े परम्परागत ग्रामीण समुदाय के रूप में की थी जो भारतीय कृषि-व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए आवश्यक सिंचाई के साधनों के लिए पूरी तरह एशियाई निरंकुशता पर आश्रित रहने को बाध्य था। इस सन्दर्भ में उन्होंने मार्क्स के एशियाई उत्पादन पद्धति के सिद्धान्त की समीक्षा भी की है और स्थापित किया है कि मार्क्स ने अपने परवर्ती लेखन में इस स्थापना को छोड़ दिया था। इरफान हबीब ने वस्तुतः भारत के सन्दर्भ में जड़त्व की अवधारणा का जोरदार और तथ्यपरक खण्डन किया है। इन लेखों के अध्ययन से पाठक को अपने ज्ञान में थोड़ी भी वृद्धि होती है या इतिहास-दृष्टि के विषय में नया आलोक मिलता है, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।
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Description
इस संग्रह में इरफान हबीब के आठ निबन्ध संकलित हैं। निबन्धों में विषय का वैविध्य तो है, किन्तु इस अर्थ में एकसूत्रता है कि सभी निबन्धों में कमोवेश इस धारणा अथवा प्रचार के विरुद्ध एक बहस की गयी है कि भारतीय समाज परिवर्तनहीन और जड़ परम्पराओं से ग्रस्त रहा है। ‘भारतीय इतिहास की व्याख्या’ उनका महत्त्वपूर्ण निबन्ध है। इसमें वे स्थापित करते हैं कि इतिहास का पुनः पाठ एक निरन्तर प्रक्रिया है। हम अतीत की समीक्षा इस आशा में करते हैं कि शायद वह हमारे वर्तमान के लिए भी कुछ उपयोगी हो।
यद्यपि जातीय व्यवस्था के विषय में उन्होंने अपने लेखों में जगह-जगह टिप्पणियाँ की हैं, किन्तु ‘भारतीय इतिहास में जाति’ लेख में उन्होंने जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में विस्तार से विचार किया है-विशेष रूप से लुई इयूमाँ की पुस्तक ‘होमो हायरार्किकस’ के सन्दर्भ में। वे जाति की विचारधारा को शुद्ध रूप से ब्राह्मणवादी नहीं मानते। जाति-प्रथा हमेशा वर्गीय शोषण का आधार रही, जिसका सर्वाधिक लाभ शासक वर्ग ने उठाया। ‘ब्रिटिश-पूर्व भारत में भू-सम्पत्ति का सामाजिक वितरण : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण’ शीर्षक लेख में इरफ़ान हबीब ने भू-सम्पत्ति की विभिन्न अवस्थाओं और वर्गीय शोषण के विभिन्न रूपों का अध्ययन किया है। प्रस्तुत संग्रह में ‘मार्क्सवादी इतिहास-लेखन’ के सम्बन्ध में उनके तीन महत्त्वपूर्ण लेख हैं। ‘मार्क्सवादी इतिहास विश्लेषण की समस्याएँ’ लेख में मार्क्स की इतिहास-दृष्टि की पड़ताल की है। मार्क्स ने भारतीय समाज की निष्क्रियता और परिवर्तनहीनता की व्याख्या जातियों में जकड़े परम्परागत ग्रामीण समुदाय के रूप में की थी जो भारतीय कृषि-व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए आवश्यक सिंचाई के साधनों के लिए पूरी तरह एशियाई निरंकुशता पर आश्रित रहने को बाध्य था। इस सन्दर्भ में उन्होंने मार्क्स के एशियाई उत्पादन पद्धति के सिद्धान्त की समीक्षा भी की है और स्थापित किया है कि मार्क्स ने अपने परवर्ती लेखन में इस स्थापना को छोड़ दिया था। इरफान हबीब ने वस्तुतः भारत के सन्दर्भ में जड़त्व की अवधारणा का जोरदार और तथ्यपरक खण्डन किया है। इन लेखों के अध्ययन से पाठक को अपने ज्ञान में थोड़ी भी वृद्धि होती है या इतिहास-दृष्टि के विषय में नया आलोक मिलता है, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।
About Author
इरफ़ान हबीब (1931) भारत के अन्तरराष्ट्रीय स्तर के इतिहासकार हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. करने के बाद ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (इंग्लैंड) से उन्होंने डी. लिट् की उपाधि ली है। ऐग्रेरियन सिस्टम ऑफ़ मुग़ल इंडिया जैसी विश्वविख्यात पुस्तक लिखने के अलावा एन अटलस ऑफ़ मुग़ल एम्पायर (1982) भी तैयार किया है। सौ से ऊपर शोध-पत्र लिखे हैं और कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का सम्पादन किया है। वे पीपुल्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया श्रृंखला के प्रधान सम्पादक हैं। इतिहास में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए रवीन्द्र भारती कलकत्ता विश्वविद्यालय, कलकत्ता ने उनको डी.लिट् की मानद उपाधि से और अमेरिकन हिस्टोरिकल एसोसिएशन ने बाटमुल पुरस्कार से सम्मानित किया है। सम्प्रति वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं।
रमेश रावत (अनुवादक) (1957), प्रारम्भिक शिक्षा ग्रामीण परिवेश में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ से प्रथम श्रेणी में एम.ए. तथा राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से पीएच.डी.।
प्रकाशित रचनाएँ : मुक्तिबोध की आलोचना प्रक्रिया, भाषा विज्ञान, 1857 की राजनीति : धर्म और जाति के सन्दर्भ में-एक पुस्तिका, देशज आधुनिकता और कबीर (पुस्तिका), इतिहास और विचारधारा, भारतीय इतिहास में मध्यकाल, भारतीय इतिहास के महत्त्वपूर्ण पड़ाव : पुनर्व्याख्या तथा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन और राष्ट्रवाद-इरफ़ान हबीब के निबन्धों का सम्पादन एवं अनुवाद, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी और अंग्रेज़ी में लेखन ।
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