Bharat mein Panchayati Raj : Pariprekshya Aur Anubhav

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
जॉर्ज मैथ्यू
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
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जॉर्ज मैथ्यू
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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भारत में पंचायती राज लगभग उतना ही पुराना है। जितना स्वयं भारत । लेकिन आज हमारे गाँव-गाँव में जो पंचायतें हैं, वे एक अलग और सर्वथा नयी कहानी हैं। ग्राम, ब्लॉक और ज़िला — इन तीन संस्तरों पर देश भर में फैली हुई इन पंचायतों की स्वतन्त्र संवैधानिक सत्ता है। इसे भारतीय राज्य का तीसरा पाया कहा जा सकता है, जिसकी ज़रूरत 1990 के आसपास इसलिए बहुत ही तीव्रता से महसूस की गयी कि जनता की बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए सिर्फ़ केन्द्र और राज्य सरकारों पर परम्परागत निर्भरता की सीमाएँ उस समय तक उजागर हो चुकी थीं और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के अलावा कोई और उपाय नहीं रह गया था।

तिहत्तरवें संविधान संशोधन को लागू हुए एक दशक बीत चला है । प्रश्न यह है कि क्या इस लक्ष्य को हम किसी बड़ी सीमा तक हासिल कर पाये हैं, जो इस दूसरी लोकतान्त्रिक क्रान्ति के संवैधानिक स्वप्न के केन्द्र में था ? उत्तर मिला-जुला है। पंचायती राज के माध्यम से गाँव के स्तर पर एक मौन क्रान्ति का सूत्रपात हो है। सत्ता के ज़मीनी स्तर के प्रयोग में चुका महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को वांछित स्थान मिल गया है। लगभग सभी राज्यों में पंचायतों के चुनाव नियमित अन्तराल पर होने लगे हैं। बहुत-सी पंचायतों में लोक सत्ता अपने को अभिव्यक्त भी कर रही है। पंचायती राज की सफलता की कथाएँ देश के विभिन्न कोनों से सुनाई पड़ने लगी हैं। लेकिन क़िस्सा यह भी है कि सभी कुछ ठीक-ठाक नहीं है । ग्रामीण भारत की परम्परागत सत्ताएँ इस नये लोकतान्त्रिक निज़ाम को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं। । छल और वंचना के विभिन्न प्रपंचों से तथा ज़रूरत पड़ने पर प्रत्यक्ष हिंसा के द्वारा भी वे पंचायत राजनीति के नये खिलाड़ियों को दबाने और कुचलने में लगी हुई हैं। सबसे ज़्यादा अफ़सोस और चिन्ता की बात यह है कि राज्य सरकारें नहीं चाहतीं कि ये स्थानीय सरकारें उनकी सत्ता में थोड़ी भी साझीदारी करें और केन्द्रीय सरकार भी तरह-तरह से पंचायती राज को शक्तिहीन करने की कोशिश कर रही है । इस निर्णायक मुकाम पर ‘पंचायती इच्छाशक्ति’ ही कोई बड़ा कमाल कर सकती है।

भारत में पंचायती राज के स्वप्न, परियोजना और कमज़ोरियों का यह प्रखर लेखा-जोखा देश के अनन्य समाजविज्ञानी डॉ. जॉर्ज मैथ्यू ने तैयार किया है। पंचायती राज और विकेन्द्रीकरण के प्रति उनका जैसा अगाध लगाव है और इस क्षेत्र में सिद्धान्त और व्यवहार, दोनों स्तरों पर जितनी निरन्तरता और गहराई से उन्होंने कार्य किया है, उसे देखते हुए यह काम उनसे बेहतर और कौन कर सकता था ?

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भारत में पंचायती राज लगभग उतना ही पुराना है। जितना स्वयं भारत । लेकिन आज हमारे गाँव-गाँव में जो पंचायतें हैं, वे एक अलग और सर्वथा नयी कहानी हैं। ग्राम, ब्लॉक और ज़िला — इन तीन संस्तरों पर देश भर में फैली हुई इन पंचायतों की स्वतन्त्र संवैधानिक सत्ता है। इसे भारतीय राज्य का तीसरा पाया कहा जा सकता है, जिसकी ज़रूरत 1990 के आसपास इसलिए बहुत ही तीव्रता से महसूस की गयी कि जनता की बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए सिर्फ़ केन्द्र और राज्य सरकारों पर परम्परागत निर्भरता की सीमाएँ उस समय तक उजागर हो चुकी थीं और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के अलावा कोई और उपाय नहीं रह गया था।

तिहत्तरवें संविधान संशोधन को लागू हुए एक दशक बीत चला है । प्रश्न यह है कि क्या इस लक्ष्य को हम किसी बड़ी सीमा तक हासिल कर पाये हैं, जो इस दूसरी लोकतान्त्रिक क्रान्ति के संवैधानिक स्वप्न के केन्द्र में था ? उत्तर मिला-जुला है। पंचायती राज के माध्यम से गाँव के स्तर पर एक मौन क्रान्ति का सूत्रपात हो है। सत्ता के ज़मीनी स्तर के प्रयोग में चुका महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को वांछित स्थान मिल गया है। लगभग सभी राज्यों में पंचायतों के चुनाव नियमित अन्तराल पर होने लगे हैं। बहुत-सी पंचायतों में लोक सत्ता अपने को अभिव्यक्त भी कर रही है। पंचायती राज की सफलता की कथाएँ देश के विभिन्न कोनों से सुनाई पड़ने लगी हैं। लेकिन क़िस्सा यह भी है कि सभी कुछ ठीक-ठाक नहीं है । ग्रामीण भारत की परम्परागत सत्ताएँ इस नये लोकतान्त्रिक निज़ाम को स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं। । छल और वंचना के विभिन्न प्रपंचों से तथा ज़रूरत पड़ने पर प्रत्यक्ष हिंसा के द्वारा भी वे पंचायत राजनीति के नये खिलाड़ियों को दबाने और कुचलने में लगी हुई हैं। सबसे ज़्यादा अफ़सोस और चिन्ता की बात यह है कि राज्य सरकारें नहीं चाहतीं कि ये स्थानीय सरकारें उनकी सत्ता में थोड़ी भी साझीदारी करें और केन्द्रीय सरकार भी तरह-तरह से पंचायती राज को शक्तिहीन करने की कोशिश कर रही है । इस निर्णायक मुकाम पर ‘पंचायती इच्छाशक्ति’ ही कोई बड़ा कमाल कर सकती है।

भारत में पंचायती राज के स्वप्न, परियोजना और कमज़ोरियों का यह प्रखर लेखा-जोखा देश के अनन्य समाजविज्ञानी डॉ. जॉर्ज मैथ्यू ने तैयार किया है। पंचायती राज और विकेन्द्रीकरण के प्रति उनका जैसा अगाध लगाव है और इस क्षेत्र में सिद्धान्त और व्यवहार, दोनों स्तरों पर जितनी निरन्तरता और गहराई से उन्होंने कार्य किया है, उसे देखते हुए यह काम उनसे बेहतर और कौन कर सकता था ?

About Author

जॉर्ज मैथ्यू जॉर्ज मैथ्यू का जन्म 6 मई 1943 को केरल में हुआ था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से उन्होंने पीएच. डी. की। उनके शोध कार्य का विषय था : धर्मनिरपेक्षीकरण और सम्प्रदायीकरण: केरल राज्य में अन्तर्विरोध और परिवर्तन : 1890-1980। वे 1981-82 में शिकागो विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई अध्ययन केन्द्र में और 1988 में पडोवा विश्वविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे। ग्रीष्म 1991 में शिकागो विश्वविद्यालय में काम करने के लिए उन्हें फुलब्राइट वृत्ति प्रदान की गयी । उन्होंने 1968 से एशियाई देशों, उत्तर अमेरिका तथा पूर्वी एवं पश्चिमी यूरोप में धर्म और समाज, राजनीतिक प्रक्रिया और लोकतन्त्र एवं मानव अधिकारों पर विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों तथा परिसंवादों में हिस्सेदारी की और परचे पढ़े। राज्य और समाज के सुधी अध्येता डॉ. जॉर्ज मैथ्यू के अध्ययन और लेख राष्ट्रीय दैनिकों, पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में प्रकाशित होते हैं। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी उनके काम का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं: कम्यूनल रोड टु अ सेक्यूलर केराला तथा पंचायती राज : फ्रॉम लेजिस्लेशन टु मूवमेंट। उनके द्वारा सम्पादित कृतियाँ हैं : डिग्निटी टु ऑल : एस्सेज इन सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसी, पंचायती राज इन कर्नाटका टुडे : इट्स नेशनल डाइमेंशन्स, पंचायती राज इन जम्मू एंड कश्मीर तथा स्टेटस ऑफ़ पंचायती राज इन द स्टेट्स एंड यूनियन टेरिटरीज ऑफ़ इंडिया, 2000. डॉ. मैथ्यू इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइसेंज, नयी दिल्ली के संस्थापक निदेशक हैं। नागरिक अधिकार आन्दोलन में भी वे सक्रिय रहे हैं। सम्प्रति उनके शोध और अध्ययन कार्य का विषय है भारत में स्थानीय शासन प्रणाली, पंचायती राज तथा तृणमूल स्तरीय लोकतन्त्र । वे अनेक सामाजिक संस्थाओं से विभिन्न हैसियतों में सम्बद्ध हैं।

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