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Beeswin Shatabdi Mein Darshanshastra (PB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Suman Gupta
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Suman Gupta
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹199 ₹198
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ISBN:
SKU
9789394902985
Category Hindi
Category: Hindi
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‘दर्शनशास्त्र : पूर्व और पश्चिम’ शृंखला की इस सातवीं पुस्तक में डॉ. सुमन गुप्ता ने समकालीन दार्शनिक चिन्तन की दो मुख्य प्रवृत्तियों—भाषिक दर्शनशास्त्र और अस्तित्ववाद—का मार्क्सवादी दृष्टि से अध्ययन किया है। इन दोनों विचारधाराओं को उनके सही सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखते हुए, डॉ. गुप्ता ने इनकी प्रचलित व्याख्याओं पर प्रश्नचिह्न लगाया है। उनका तर्क है कि गूढ़ पारिभाषिक शब्दावली के आवरण में इन विचारधाराओं की अमूर्त तत्त्वमीमांसी प्रणाली पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है, जो एक सही विश्व-दृष्टि प्रस्तुत करने के स्थान पर यथार्थ को विरूपित करती है। भाषिक दर्शनशास्त्रियों और अस्तित्ववादियों के दृष्टिकोण के विपरीत, डॉ. सुमन गुप्ता ने एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया है, जो न केवल इन चिन्तनधाराओं के विविध पक्षों का एकीकरण करता है बल्कि उनके सामाजिक यथार्थ की जड़ों में भी जाता है। सुमन गुप्ता ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि भाषिक दर्शनशास्त्रियों और अस्तित्ववादियों द्वारा प्रतिपादित मनुष्य की संकल्पना मनुष्य को एक ऐसे अमूर्त रूप में चित्रित करती है जो अपने सामाजिक क्रियाकलाप से अपना या अपने चारों ओर की दुनिया का रूपान्तरण करने में असमर्थ है।
डॉ. गुप्ता ने समकालीन दर्शन की इन दोनों प्रवृत्तियों की न केवल समीक्षा प्रस्तुत की है, बल्कि वह विश्व-दृष्टि भी सामने रखी है जिसे वे सही मानती हैं।
सुमन गुप्ता ने भाषिक दर्शनशास्त्र और अस्तित्ववाद का विवेचन साधारण कुशलता से किया है लेकिन उनकी पद्धति निस्सन्देह विवादमूलक है, जिसके फलस्वरूप यह पुस्तक दर्शनशास्त्र के प्रति एक नई दृष्टि विकसित करने में सहायक होगी और जो पाठक दर्शनशास्त्र की सार्थकता को जीवन की यथार्थ समस्याओं से जोड़कर देखना चाहते हैं, उनके लिए यह निश्चय ही रोचक और पठनीय सिद्ध होगी।
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Description
‘दर्शनशास्त्र : पूर्व और पश्चिम’ शृंखला की इस सातवीं पुस्तक में डॉ. सुमन गुप्ता ने समकालीन दार्शनिक चिन्तन की दो मुख्य प्रवृत्तियों—भाषिक दर्शनशास्त्र और अस्तित्ववाद—का मार्क्सवादी दृष्टि से अध्ययन किया है। इन दोनों विचारधाराओं को उनके सही सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखते हुए, डॉ. गुप्ता ने इनकी प्रचलित व्याख्याओं पर प्रश्नचिह्न लगाया है। उनका तर्क है कि गूढ़ पारिभाषिक शब्दावली के आवरण में इन विचारधाराओं की अमूर्त तत्त्वमीमांसी प्रणाली पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है, जो एक सही विश्व-दृष्टि प्रस्तुत करने के स्थान पर यथार्थ को विरूपित करती है। भाषिक दर्शनशास्त्रियों और अस्तित्ववादियों के दृष्टिकोण के विपरीत, डॉ. सुमन गुप्ता ने एक ऐसा दृष्टिकोण अपनाया है, जो न केवल इन चिन्तनधाराओं के विविध पक्षों का एकीकरण करता है बल्कि उनके सामाजिक यथार्थ की जड़ों में भी जाता है। सुमन गुप्ता ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि भाषिक दर्शनशास्त्रियों और अस्तित्ववादियों द्वारा प्रतिपादित मनुष्य की संकल्पना मनुष्य को एक ऐसे अमूर्त रूप में चित्रित करती है जो अपने सामाजिक क्रियाकलाप से अपना या अपने चारों ओर की दुनिया का रूपान्तरण करने में असमर्थ है।
डॉ. गुप्ता ने समकालीन दर्शन की इन दोनों प्रवृत्तियों की न केवल समीक्षा प्रस्तुत की है, बल्कि वह विश्व-दृष्टि भी सामने रखी है जिसे वे सही मानती हैं।
सुमन गुप्ता ने भाषिक दर्शनशास्त्र और अस्तित्ववाद का विवेचन साधारण कुशलता से किया है लेकिन उनकी पद्धति निस्सन्देह विवादमूलक है, जिसके फलस्वरूप यह पुस्तक दर्शनशास्त्र के प्रति एक नई दृष्टि विकसित करने में सहायक होगी और जो पाठक दर्शनशास्त्र की सार्थकता को जीवन की यथार्थ समस्याओं से जोड़कर देखना चाहते हैं, उनके लिए यह निश्चय ही रोचक और पठनीय सिद्ध होगी।
About Author
सुमन गुप्ता
डॉ. सुमन गुप्ता (विवाह-पूर्व सुमन मल्लिक) की उच्च शिक्षा मिरांडा कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई। वहीं से बी.ए. और एम.ए.। प्रो. ए.जे. आयर के निर्देशन में अध्ययन करने के लिए 1956 में इंग्लैंड गईं और 1959 तक वहाँ रहकर अपना शोध-प्रबन्ध पूरा किया, जिसका विषय था—‘प्राब्लम्स ऑफ़ नॉलेज’ (ज्ञान की समस्याएँ)।
शिक्षण का प्रारम्भ 1960 में लेडी श्रीराम कॉलेज से। कुछ समय बाद उनकी नियुक्ति मिरांडा कॉलेज के दर्शन विभाग में प्रवक्ता के रूप में हो गई। वहाँ से वे दिल्ली कॉलेज (अब डॉ. जाकिर हुसैन कॉलेज) में चली गईं, जहाँ उन्होंने 14 वर्ष तक प्राध्यापन किया। सन् 1975 में वे दर्शन की एसोशिएट प्रोफ़ेसर के रूप में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नियुक्त हुईं। सन् 1984 में प्रोफ़ेसर के रूप में पदोन्नत।
डॉ. गुप्ता की दो पुस्तकें हैं : 1. ‘द ओरिजिन एंड थ्योरीज़ ऑफ़ लिंग्विस्टिक फ़िलॉसफ़ी’ और
2. ‘ए क्रिटीक ऑफ़ विटगेंस्टाइन’। प्रो. देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय के अभिनन्दनार्थ प्रकाशित ग्रन्थ फ़िलॉसफ़ी, साइंस एंड सोशल प्रोग्रेस का सम्पादन भी डॉ. गुप्ता ने किया है।
प्रकाशित और सम्पादित पुस्तकों के अलावा डॉ. गुप्ता ने मैथडोलॉजी और लिंग्विस्टिक फ़िलॉसफ़ी पर अनेक शोध-निबन्ध लिखे हैं, जो कई पुस्तकों और अकादमिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। बहुत-सी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठियों एवं परिचर्चाओं में भाग लिया है।
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