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जो बातें मुझको चुभ जाती हैं, मैं उनकी सूई बना लेती हूँ। बहुत बचपन से यह एहसास मेरे भीतर थहाटें मारता रहा कि मेरे भीतर के पानियों में एक विशाल नगर डूबा हुआ है-कुछ स्तूप, कुछ ध्वस्त मूर्तियाँ, कुछ दीवारें, पत्थर के बरतन…वगैरह! कुछ लोग हैं, खासकर कुछ स्त्रियाँ जो चुपचाप एक ही दिशा में देख रही हैं लेकिन उन आँखों में कोई प्रतीक्षा नहीं, कोई सपना नहीं। स्मृतिशून्य भी हैं वे आँखें पर मुर्दा नहीं हैं। करुणा की निष्कम्प लौ है उन आँखों में और एक अन्तरंग-सा उजास। आस-पास की लहरों पर बिछलती मछलियाँ, दूसरे जल-जीव और वनस्पतियाँ भी इनकी उपस्थिति से बिल्कुल अप्रभावित। किसी का किसी से कोई ख़ास संवाद नहीं, और संवाद की ज़रूरत भी नहीं, इतनी मगन और मीठी-सी चुप्पी छायी है कि शब्द भी प्राणों में रोड़े अटकाते जान पड़ते हैं। अक्सर आँख बन्द करने पर और कभी-कभी खुली आँखों से भी मैंने यह दृश्य देखा है जो क्या जाने कब से मेरे अवचेतन में दर्ज था। ये धुएँ की लकीरें ही तरह-तरह की काल्पनिक आकृतियाँ अक्सर सजा देती हैं। ये अधूरी आकृतियाँ पूरी करने की आकांक्षा से कलम उठाई थी, जैसे कोई छोटा बच्चा पहली कूची उठाता है, कोई दर्जी अपनी सूई से सब कतरनों की कथरी सिल लेता है। बचपन में अक्सर ऐसा होता। आधा समझा हुआ, आधा असमझा, आधा रंगीन, आधा बेरंग, आधा उजाला, आधा अँधेरा मुझे सामने के लोगों के आस-पास भी घिरा जान पड़ता और एक अनाम-सी बेचैनी घेरे रहती। कभी कोयल कूकती तो एकदम से रुलाई आ जाती। अमराई में कोई सूना हिंडोला लू के थपेड़ों पर झूलता हुआ दिखाई देता तो भी कलेजा मसकता। होली के बाद बचे हुए रंगों के ठोंगे मुझे विशेष परेशान करते। कोई त्योहार आता तो लगता कोई मुझे बीच से दो टुकड़ों में वैसे ही चीर रहा है जैसे आरी से लकड़ी चीर दी जाती है-आधा हिस्सा तो पिचकारियाँ भर रहा है, पुए का लोर घोलने में माँ की मदद कर रहा है, मुहल्ले में लड़के-लड़कियों के साथ होली खेल रहा है और आधा हिस्सा पीछे छूटा हुआ देख रहा है। धूल के गुबार, पुरबाई में धीरे-धीरे बहता यह एक विराट एकान्त मेरी धड़कनों में प्रवेश कर रहा है। क्या जाने किसकी प्रतीक्षा है, क्या जाने क्या होने वाला है, सब कुछ अधूरा है-‘फिल इन द ब्लैंक्स’ ‘फिल इन द ब्लैंक्स’ पड़ोस में लोकल कॉन्वेंट से ऐंग्लो-इंडियन मिसेज़ हॉलिग्सवर्थ जिस स्वर में निर्देश देती थीं, उससे अलग किसी स्वर में कोई कहता, “रिक्त स्थानों की पूर्ति करो, रिक्त स्थानों की पूर्ति!”
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जो बातें मुझको चुभ जाती हैं, मैं उनकी सूई बना लेती हूँ। बहुत बचपन से यह एहसास मेरे भीतर थहाटें मारता रहा कि मेरे भीतर के पानियों में एक विशाल नगर डूबा हुआ है-कुछ स्तूप, कुछ ध्वस्त मूर्तियाँ, कुछ दीवारें, पत्थर के बरतन…वगैरह! कुछ लोग हैं, खासकर कुछ स्त्रियाँ जो चुपचाप एक ही दिशा में देख रही हैं लेकिन उन आँखों में कोई प्रतीक्षा नहीं, कोई सपना नहीं। स्मृतिशून्य भी हैं वे आँखें पर मुर्दा नहीं हैं। करुणा की निष्कम्प लौ है उन आँखों में और एक अन्तरंग-सा उजास। आस-पास की लहरों पर बिछलती मछलियाँ, दूसरे जल-जीव और वनस्पतियाँ भी इनकी उपस्थिति से बिल्कुल अप्रभावित। किसी का किसी से कोई ख़ास संवाद नहीं, और संवाद की ज़रूरत भी नहीं, इतनी मगन और मीठी-सी चुप्पी छायी है कि शब्द भी प्राणों में रोड़े अटकाते जान पड़ते हैं। अक्सर आँख बन्द करने पर और कभी-कभी खुली आँखों से भी मैंने यह दृश्य देखा है जो क्या जाने कब से मेरे अवचेतन में दर्ज था। ये धुएँ की लकीरें ही तरह-तरह की काल्पनिक आकृतियाँ अक्सर सजा देती हैं। ये अधूरी आकृतियाँ पूरी करने की आकांक्षा से कलम उठाई थी, जैसे कोई छोटा बच्चा पहली कूची उठाता है, कोई दर्जी अपनी सूई से सब कतरनों की कथरी सिल लेता है। बचपन में अक्सर ऐसा होता। आधा समझा हुआ, आधा असमझा, आधा रंगीन, आधा बेरंग, आधा उजाला, आधा अँधेरा मुझे सामने के लोगों के आस-पास भी घिरा जान पड़ता और एक अनाम-सी बेचैनी घेरे रहती। कभी कोयल कूकती तो एकदम से रुलाई आ जाती। अमराई में कोई सूना हिंडोला लू के थपेड़ों पर झूलता हुआ दिखाई देता तो भी कलेजा मसकता। होली के बाद बचे हुए रंगों के ठोंगे मुझे विशेष परेशान करते। कोई त्योहार आता तो लगता कोई मुझे बीच से दो टुकड़ों में वैसे ही चीर रहा है जैसे आरी से लकड़ी चीर दी जाती है-आधा हिस्सा तो पिचकारियाँ भर रहा है, पुए का लोर घोलने में माँ की मदद कर रहा है, मुहल्ले में लड़के-लड़कियों के साथ होली खेल रहा है और आधा हिस्सा पीछे छूटा हुआ देख रहा है। धूल के गुबार, पुरबाई में धीरे-धीरे बहता यह एक विराट एकान्त मेरी धड़कनों में प्रवेश कर रहा है। क्या जाने किसकी प्रतीक्षा है, क्या जाने क्या होने वाला है, सब कुछ अधूरा है-‘फिल इन द ब्लैंक्स’ ‘फिल इन द ब्लैंक्स’ पड़ोस में लोकल कॉन्वेंट से ऐंग्लो-इंडियन मिसेज़ हॉलिग्सवर्थ जिस स्वर में निर्देश देती थीं, उससे अलग किसी स्वर में कोई कहता, “रिक्त स्थानों की पूर्ति करो, रिक्त स्थानों की पूर्ति!”
About Author
राष्ट्रभाषा परिषद् पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान, साहित्यकार सम्मान से शोभित अनामिका का जन्म 17 अगस्त, 1961, मुजफ्फरपुर, बिहार में हुआ । इन्होंने एम.ए., पीएच.डी.( अंग्रेजी), दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त की । तिनका तिनके पास (उपन्यास),कहती हैं औरतें (सम्पादित कविता संग्रह) प्रकाशित हैं । वर्तमान में रीडर,अंग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय ।
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