Beech Bahas Mein Secularvad (CSDS)

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
अभय कुमार दुबे
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani Prakashan
Author:
अभय कुमार दुबे
Language:
Hindi
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Paperback

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विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सी.एस.डी.एस.) द्वारा प्रायोजित लोक-चिन्तन ग्रन्थमाला की इस पहली कड़ी में समझने की कोशिश की गयी है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से ले कर एक आधुनिक राष्ट्र-निर्माण की विराट परियोजना चलाने के दौरान दलित समस्या पूरी तरह क्यों नहीं दूर हुई । दलित आन्दोलनों के स्रोत्रों की खोज से शुरू हुई यह बौद्धिक यात्रा इतिहास, संस्कृति, अस्मिता, चेतना, साहित्य, अवमानना के राजनीतिक सिद्धान्त और ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्रों से गुजरने के बाद व्यावहारिक राजनीति में होने वाली दलीय होड़ की जाँच-पड़ताल करती है ताकि भारतीय गणतंत्र के संविधान प्रदत्त सार्विक मताधिकार की समाज परिवर्तनकारी क्षमताओं की असली थाह ली जा सके । यह दलित-मीमांसा उन ताजा बहसों पर गहरी नजर डालती है जो अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुँची हैं लेकिन जिनकी परिणतियों में दलित प्रश्न को आमूल-चूल बदल डालने की क्षमता है । ये बहसें दलित प्रश्न के भूमंडलीकरण से तो जुड़ी हुई हैं ही, साथ ही भूमंडलीकरण के साथ दलितों के सम्बन्ध की प्रकृति को खोजने की कोशिश भी करती हैं।

भारताय सकुलरवाद पर पहली बहस साठ के दशक में हुई। कुछ विद्वानों ने उसकी व्याख्या कुछ इस शैली में की कि सेकुलरवाद का भारतीय मॉडल अमेरिकी या यूरोपीय मॉडल से अलग होने के कारण ही समस्याग्रस्त है।

लेकिन, भारतीय मॉडल के प्रशंसकों का दावा था कि इस सेकुलरवाद में जो खामियाँ बतायी जा रही हैं, वे ही दरअसल इसकी खूबियाँ हैं और उसे एक अनूठे प्रयोग की हैसियत दे देती हैं। अस्सी के दशक बहुसंख्यकवाद ने भारतीय सेकुलर पर जबरदस्त दबाव डाला तो एक महाविवाद फूट पड़ा जो पिछले बीस वर्ष से आज तक चल रहा है। इस महाविवाद में सेकुलरवाद पर बार-बार आरोप लगाया गया कि इस विचार को यूरोप से ला कर भारत पर थोप दिया गया है। जवाब में सेकुलरवाद के समर्थकों ने तर्क दिया कि जिन सामाजिक विशिष्टताओं के आधार पर सेकुलरवाद को भारत के लिए अनावश्यक ठहराया जा रहा है, दरअसल उन्हीं के कारण सेकुलरवाद और जरूरी बन गया है।

समाज विज्ञान के विश्व – इतिहास में अनूठे इस महाविवाद के तहत आधुनिकता, लोकतंत्र, धर्म, परम्परा, राष्ट्रवाद, प्रगति और विकास से जुड़ी अवधारणाओं और आचरणों की गहन यात्राएँ की गयी हैं। मार्क्स, वेबर, दुर्खाइम, गाँधी, नेहरू, विवेकानन्द, सावरकर, आंबेडकर, लॉक, कांट, मिल्स और रॉल्स जैसी हस्तियों के विचारों पर दिमाग खपाया गया है। समाज विज्ञान के विभिन्न अनुशासनों से आए दस विद्वानों ने इसमें भागीदारी की है।भारत का संकुलरवाद अक्सर मुश्किल में रहता है, हालाँकि खुद को सेकुलर न बताने बाला इस देश में शायद ही कोई हो। सेकुलरवाद के साथ घनिष्ठता का दावा बहुसंख्यकवाद के कई विख्यात पैरोकारों ने भी किया है। सेकुलरवाद के भारतीय संस्करण की कठिनाइयों का एक सुराग इस बहुसंख्यकवाद की जाँच-पड़ताल में मिल सकता है। सावरकर के हिन्दुत्व का एक महत्त्वपूर्ण तात्पर्य यह भी है कि यह अल्पसंख्यकों के लिए गैर-सेकुलर, लेकिन हिन्दू समाज के लिए सेकुलर मन्तव्यों वाला सिद्धान्त है। जाहिर है कि सेकुलरवाद को अगर बहुलताबाद से आवेशित न किया जाये, और उसे केवल धर्मतंत्रीय राज्य की मुखालफत तक ही सीमित रखा जाए, तो कोरी आधुनिकता, निर्मम बुद्धिवाद और सामाजिक-सांस्कृतिक समरूपीकरण का बुलडोजर उसे अनुदार, बहुसंख्यकवादी और यहाँ तक कि फासीवादी हाथों का औजार भी बना सकता है।

संविधान सभा ने सेकुलरवाद का जो खाका तैयार किया था, उस पर गाँधी और नेहरू के मिले-जुले विचारों की छाप थी। उदारतावाद, बहुलतावाद और बुद्धिवाद के मिश्रण से बना यह खास तरह का भारतीय सेकुलरवाद था। लेकिन, अल्पमत- बहुमत के खेल में अस्थायी प्रकृति के परिवर्तनशील लोकतांत्रिक राजनीतिक बहुमत को धार्मिक बहुसंख्या के आधार पर रचे गये अपरिवर्तनीय और स्थायी बहुमत की तरह परिभाषित करने की सम्भावनाएँ खत्म नहीं हुई थीं।

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विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सी.एस.डी.एस.) द्वारा प्रायोजित लोक-चिन्तन ग्रन्थमाला की इस पहली कड़ी में समझने की कोशिश की गयी है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से ले कर एक आधुनिक राष्ट्र-निर्माण की विराट परियोजना चलाने के दौरान दलित समस्या पूरी तरह क्यों नहीं दूर हुई । दलित आन्दोलनों के स्रोत्रों की खोज से शुरू हुई यह बौद्धिक यात्रा इतिहास, संस्कृति, अस्मिता, चेतना, साहित्य, अवमानना के राजनीतिक सिद्धान्त और ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्रों से गुजरने के बाद व्यावहारिक राजनीति में होने वाली दलीय होड़ की जाँच-पड़ताल करती है ताकि भारतीय गणतंत्र के संविधान प्रदत्त सार्विक मताधिकार की समाज परिवर्तनकारी क्षमताओं की असली थाह ली जा सके । यह दलित-मीमांसा उन ताजा बहसों पर गहरी नजर डालती है जो अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुँची हैं लेकिन जिनकी परिणतियों में दलित प्रश्न को आमूल-चूल बदल डालने की क्षमता है । ये बहसें दलित प्रश्न के भूमंडलीकरण से तो जुड़ी हुई हैं ही, साथ ही भूमंडलीकरण के साथ दलितों के सम्बन्ध की प्रकृति को खोजने की कोशिश भी करती हैं।

भारताय सकुलरवाद पर पहली बहस साठ के दशक में हुई। कुछ विद्वानों ने उसकी व्याख्या कुछ इस शैली में की कि सेकुलरवाद का भारतीय मॉडल अमेरिकी या यूरोपीय मॉडल से अलग होने के कारण ही समस्याग्रस्त है।

लेकिन, भारतीय मॉडल के प्रशंसकों का दावा था कि इस सेकुलरवाद में जो खामियाँ बतायी जा रही हैं, वे ही दरअसल इसकी खूबियाँ हैं और उसे एक अनूठे प्रयोग की हैसियत दे देती हैं। अस्सी के दशक बहुसंख्यकवाद ने भारतीय सेकुलर पर जबरदस्त दबाव डाला तो एक महाविवाद फूट पड़ा जो पिछले बीस वर्ष से आज तक चल रहा है। इस महाविवाद में सेकुलरवाद पर बार-बार आरोप लगाया गया कि इस विचार को यूरोप से ला कर भारत पर थोप दिया गया है। जवाब में सेकुलरवाद के समर्थकों ने तर्क दिया कि जिन सामाजिक विशिष्टताओं के आधार पर सेकुलरवाद को भारत के लिए अनावश्यक ठहराया जा रहा है, दरअसल उन्हीं के कारण सेकुलरवाद और जरूरी बन गया है।

समाज विज्ञान के विश्व – इतिहास में अनूठे इस महाविवाद के तहत आधुनिकता, लोकतंत्र, धर्म, परम्परा, राष्ट्रवाद, प्रगति और विकास से जुड़ी अवधारणाओं और आचरणों की गहन यात्राएँ की गयी हैं। मार्क्स, वेबर, दुर्खाइम, गाँधी, नेहरू, विवेकानन्द, सावरकर, आंबेडकर, लॉक, कांट, मिल्स और रॉल्स जैसी हस्तियों के विचारों पर दिमाग खपाया गया है। समाज विज्ञान के विभिन्न अनुशासनों से आए दस विद्वानों ने इसमें भागीदारी की है।भारत का संकुलरवाद अक्सर मुश्किल में रहता है, हालाँकि खुद को सेकुलर न बताने बाला इस देश में शायद ही कोई हो। सेकुलरवाद के साथ घनिष्ठता का दावा बहुसंख्यकवाद के कई विख्यात पैरोकारों ने भी किया है। सेकुलरवाद के भारतीय संस्करण की कठिनाइयों का एक सुराग इस बहुसंख्यकवाद की जाँच-पड़ताल में मिल सकता है। सावरकर के हिन्दुत्व का एक महत्त्वपूर्ण तात्पर्य यह भी है कि यह अल्पसंख्यकों के लिए गैर-सेकुलर, लेकिन हिन्दू समाज के लिए सेकुलर मन्तव्यों वाला सिद्धान्त है। जाहिर है कि सेकुलरवाद को अगर बहुलताबाद से आवेशित न किया जाये, और उसे केवल धर्मतंत्रीय राज्य की मुखालफत तक ही सीमित रखा जाए, तो कोरी आधुनिकता, निर्मम बुद्धिवाद और सामाजिक-सांस्कृतिक समरूपीकरण का बुलडोजर उसे अनुदार, बहुसंख्यकवादी और यहाँ तक कि फासीवादी हाथों का औजार भी बना सकता है।

संविधान सभा ने सेकुलरवाद का जो खाका तैयार किया था, उस पर गाँधी और नेहरू के मिले-जुले विचारों की छाप थी। उदारतावाद, बहुलतावाद और बुद्धिवाद के मिश्रण से बना यह खास तरह का भारतीय सेकुलरवाद था। लेकिन, अल्पमत- बहुमत के खेल में अस्थायी प्रकृति के परिवर्तनशील लोकतांत्रिक राजनीतिक बहुमत को धार्मिक बहुसंख्या के आधार पर रचे गये अपरिवर्तनीय और स्थायी बहुमत की तरह परिभाषित करने की सम्भावनाएँ खत्म नहीं हुई थीं।

About Author

विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में $फेलो और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक। पिछले दस साल से हिंदी-रचनाशीलता और आधुनिक विचारों की अन्योन्यक्रिया का अध्ययन। साहित्यिक रचनाओं को समाजवैज्ञानिक दृष्टि से परखने का प्रयास। समाज-विज्ञान को हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लाने की परियोजना के तहत पंद्रह ग्रंथों का सम्पादन और प्रस्तुति। कई विख्यात विद्वानों की रचनाओं के अनुवाद। समाज-विज्ञान और मानविकी की पूर्व-समीक्षित पत्रिका प्रतिमान समय समाज संस्कृति के सम्पादक। पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और टीवी चैनलों पर होने वाली चर्चाओं में नियमित भागीदारी।

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