Bari Barna Khol Do

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
सुलोचना रांगेय राघव
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
सुलोचना रांगेय राघव
Language:
Hindi
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Hardback

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बारी बारणा खोल दो –
आज़ादी के पहले देश के जिन कुछ कर्मठ भारतीयों ने देश में कृषि-क्रान्ति का सपना देखा था उनमें कृष्णस्वामी अय्यंगार प्रमुख हैं। दक्षिण भारत के एक ग़रीब घर में पैदा होने के बावजूद उन्होंने कृषि विज्ञान में देश-विदेश में अध्ययन करके न सिर्फ़ अपनी ऊँची हैसियत बनायी बल्कि जीवन भर जन-कल्याण के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करते रहे। मानव सेवा उनके जीवन का लक्ष्य तथा कृषि कार्य का विकास उनके जीवन का संकल्प था।
अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जूनागढ़ स्टेट को सुविधाओं से युक्त नौकरी छोड़कर सन् 1939 में कोसबाड़ में ज़मीन ख़रीदकर एक सेवाश्रम की योजना बनायी। साथ ही, वहाँ के वारली आदिवासियों के विकास के लिए काम करने लगे। कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने समाज में फैली रूढ़ियों और अन्धविश्वास का विरोध किया। इस काम में उनका साथ उनकी पत्नी जानकी ने ख़ूब निभाया। दरअसल यह उपन्यास जितना कृष्णस्वामी की गौरवगाथा बयान करता है, उससे किसी भी अंश में कम जानकी के महत्त्व की अनदेखी नहीं करता। ख़ासतौर पर सन् 1944 में अपने पति की अकाल मृत्यु के बाद जिस तरह उसने घनघोर विपत्ति में भी अपनी गृहस्थी को बिखरने से बचाया और कृषि कार्य से अपना नाता नहीं तोड़ा, वह मन पर गहरी छाप छोड़ता है। आज़ादी के आन्दोलन की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास एक स्वप्नजीवी क्रान्तिदर्शी का जीवनचरित ही नहीं, भारतीय नारी के संघर्षों में पलते हुए जुझारू व्यक्तित्व की धूप-छाँह-भरी महागाथा भी है।

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बारी बारणा खोल दो –
आज़ादी के पहले देश के जिन कुछ कर्मठ भारतीयों ने देश में कृषि-क्रान्ति का सपना देखा था उनमें कृष्णस्वामी अय्यंगार प्रमुख हैं। दक्षिण भारत के एक ग़रीब घर में पैदा होने के बावजूद उन्होंने कृषि विज्ञान में देश-विदेश में अध्ययन करके न सिर्फ़ अपनी ऊँची हैसियत बनायी बल्कि जीवन भर जन-कल्याण के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करते रहे। मानव सेवा उनके जीवन का लक्ष्य तथा कृषि कार्य का विकास उनके जीवन का संकल्प था।
अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जूनागढ़ स्टेट को सुविधाओं से युक्त नौकरी छोड़कर सन् 1939 में कोसबाड़ में ज़मीन ख़रीदकर एक सेवाश्रम की योजना बनायी। साथ ही, वहाँ के वारली आदिवासियों के विकास के लिए काम करने लगे। कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने समाज में फैली रूढ़ियों और अन्धविश्वास का विरोध किया। इस काम में उनका साथ उनकी पत्नी जानकी ने ख़ूब निभाया। दरअसल यह उपन्यास जितना कृष्णस्वामी की गौरवगाथा बयान करता है, उससे किसी भी अंश में कम जानकी के महत्त्व की अनदेखी नहीं करता। ख़ासतौर पर सन् 1944 में अपने पति की अकाल मृत्यु के बाद जिस तरह उसने घनघोर विपत्ति में भी अपनी गृहस्थी को बिखरने से बचाया और कृषि कार्य से अपना नाता नहीं तोड़ा, वह मन पर गहरी छाप छोड़ता है। आज़ादी के आन्दोलन की पृष्ठभूमि में लिखा गया यह उपन्यास एक स्वप्नजीवी क्रान्तिदर्शी का जीवनचरित ही नहीं, भारतीय नारी के संघर्षों में पलते हुए जुझारू व्यक्तित्व की धूप-छाँह-भरी महागाथा भी है।

About Author

सुलोचना रांगेय राघव - 31 जुलाई, 1936 को जूनागढ़ (गुजरात) में एक दाक्षिणात्य अय्यंगार परिवार में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा जूनागढ़, बोर्डी (ज़िला ठाणे) और मुम्बई में स्नातकोत्तर अध्ययन के बाद राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएच.डी.। साहित्य और समाजशास्त्र दोनों विषयों की गम्भीर अध्येता। 1964 से राजस्थान विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के अध्यापन के बाद 1996 में एसोसिएट प्रोफ़ेसर के रूप में सेवानिवृत्ति । प्रकाशित कृतियाँ : 'पुन:' (रांगेय राघव के अन्तरंग जीवन पर चर्चित संस्मरण ), 'द सोश्योलॉजी ऑफ़ इंडियन लिटरेचर' (ए सोश्योलॉजिकल स्टडी ऑफ़ हिन्दी नॉवल्स), 'रांगेय राघव ग्रन्थावली' (दस भाग, सम्पादन) और 'रांगेय राघव: एक अन्तरंग परिचय' (संस्मरण)। अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि देशों की यात्रा।

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