Balvant Bhoomihar

Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Bhuvneshwar Mishra
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Prabhat Prakashan
Author:
Bhuvneshwar Mishra
Language:
Hindi
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Hardback

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2

जसवंत ने बाएँ हाथ से बलवंत के दाहिने हाथ की कलाई थाम ली और कहा, ‘‘अगर करार करो कि रास्ते में तुम मुझसे भागने की कोशिश नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें एक सवारी दूँगा।’’ बलवंत, ‘‘मैं तुमसे सवारी नहीं माँगता हूँ। अगर तुम मुझ पर ऐसे ही दयालु हुए हो तो कुछ दूर तक मेरे साथ चलो और फिर मुझे छोड़कर घर चले आओ। मैं अपना बंदोबस्त कर लूँगा।’’ जसवंत, ‘‘नहीं, सो नहीं हो सकता। तुम इस मकान में कैद हो और मेरे साथ भी कैदी की तरह चलोगे। तुम करार करो कि जब तक तुम मेरे साथ रहोगे, इस कैद से छूटने की कोशिश नहीं करोगे, तो मैं तुम्हारे लिए सवारी का बंदोबस्त कर दूँ।’’ बलवंत सिंह कुछ देर तक चुप रहे। फिर बोले, ‘‘ठीक है, अगर तुम यह करार करो और शपथ खाओ कि मेरे साथ किसी तरह का बुरा सलूक नहीं होगा, तो मैं भी शपथ करके कहूँगा कि मैं भागने की कोशिश नहीं करूँगा।’’ (‘बलवंत भूमिहार’ से) शाम को जब मैं टहलने को निकलना चाहता था तब श्रीमतीजी ने मेरे सामने आकर कहा, ‘‘टहलने चले हैं?’’ उसको असल मतलब मैं बखूबी जानता था, जवाब दिया, ‘‘नहीं, जरा भवानी सहाय के यहाँ जाना है।’’ वह, ‘‘तो जरा उधर ही से कपड़ा भी लेते आइएगा, पहनने के लिए कुछ नहीं है, कैसे क्या करूँगी।’’ यह आवाज उसके कंठ से नहीं निकली, पेट से—मुँह हो के नहीं, नाक हो के। मुझे बखूबी खयाल नहीं है कि आँख से आँसू भी गिरा था कि नहीं। उसने जो कहा कि ‘पहनने के लिए कुछ नहीं है’, इससे आप लोग यह मत समझिए कि सचमुच उसको पहनने के लायक कोई अच्छा कपड़ा नहीं था। मैं अपनी धोती मोल लेता हूँ उसकी साड़ी के कपडे़ के साथमेरे कपडे़ का एक ही बक्स सो भी आधा खाली पड़ा हुआ है; पर उसके कपडे़ के दो बक्स भरपूर भरे हैं। (‘घराऊ घटना’ से)

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जसवंत ने बाएँ हाथ से बलवंत के दाहिने हाथ की कलाई थाम ली और कहा, ‘‘अगर करार करो कि रास्ते में तुम मुझसे भागने की कोशिश नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें एक सवारी दूँगा।’’ बलवंत, ‘‘मैं तुमसे सवारी नहीं माँगता हूँ। अगर तुम मुझ पर ऐसे ही दयालु हुए हो तो कुछ दूर तक मेरे साथ चलो और फिर मुझे छोड़कर घर चले आओ। मैं अपना बंदोबस्त कर लूँगा।’’ जसवंत, ‘‘नहीं, सो नहीं हो सकता। तुम इस मकान में कैद हो और मेरे साथ भी कैदी की तरह चलोगे। तुम करार करो कि जब तक तुम मेरे साथ रहोगे, इस कैद से छूटने की कोशिश नहीं करोगे, तो मैं तुम्हारे लिए सवारी का बंदोबस्त कर दूँ।’’ बलवंत सिंह कुछ देर तक चुप रहे। फिर बोले, ‘‘ठीक है, अगर तुम यह करार करो और शपथ खाओ कि मेरे साथ किसी तरह का बुरा सलूक नहीं होगा, तो मैं भी शपथ करके कहूँगा कि मैं भागने की कोशिश नहीं करूँगा।’’ (‘बलवंत भूमिहार’ से) शाम को जब मैं टहलने को निकलना चाहता था तब श्रीमतीजी ने मेरे सामने आकर कहा, ‘‘टहलने चले हैं?’’ उसको असल मतलब मैं बखूबी जानता था, जवाब दिया, ‘‘नहीं, जरा भवानी सहाय के यहाँ जाना है।’’ वह, ‘‘तो जरा उधर ही से कपड़ा भी लेते आइएगा, पहनने के लिए कुछ नहीं है, कैसे क्या करूँगी।’’ यह आवाज उसके कंठ से नहीं निकली, पेट से—मुँह हो के नहीं, नाक हो के। मुझे बखूबी खयाल नहीं है कि आँख से आँसू भी गिरा था कि नहीं। उसने जो कहा कि ‘पहनने के लिए कुछ नहीं है’, इससे आप लोग यह मत समझिए कि सचमुच उसको पहनने के लायक कोई अच्छा कपड़ा नहीं था। मैं अपनी धोती मोल लेता हूँ उसकी साड़ी के कपडे़ के साथमेरे कपडे़ का एक ही बक्स सो भी आधा खाली पड़ा हुआ है; पर उसके कपडे़ के दो बक्स भरपूर भरे हैं। (‘घराऊ घटना’ से)

About Author

पं. भुवनेश्वर मिश्र के उपन्यास ‘बलवंत भूमिहार’ का लेखन सन् १८९६ में हुआ, किंतु प्रकाशन १९०२ में हो सका। प्रकाशन के बाद इसके तीखे यथार्थ के कारण इसकी प्रायः समस्त प्रतियाँ काशी में गंगा में विसर्जित कर दी गई थीं। तत्पश्चात् इसका पुनः प्रकाशन अब तक नहीं हो सका था। ‘बलवंत भूमिहार’ हिंदी का प्रथम उपन्यास है, जिसमें जमींदारों के अत्याचारों और उनकी मनोवृत्तियों का चित्रण बड़ी ईमानदारी व निर्भीकता से किया गया है। यह जमींदारों के अंतर्जीवन और बहिर्जीवन के कलुष की महागाथा है। इसमें जीवन-संघर्ष की अखंड ज्वाला है, यह सामाजिक यथार्थ की जलती हुई मशाल है। आत्मकथात्मक पद्धति का उपन्यास ‘घराऊ घटना’ सर्वप्रथम सन् १८९३ में प्रकाशित हुआ। इसमें हिंदी उपन्यास-साहित्य के इतिहास में सबसे पहली बार संस्कारबद्ध हिंदू परिवार के चित्र मार्मिक अनुभूतियों और गहरी विश्वसनीयता के साथ आए हैं। इस उपन्यास में हिंदू परिवार के परंपरानुमोदित संस्कार, संस्कृति, धार्मिक आवेष्टन, दांपत्य जीवन, रीति-रिवाज, अंधविश्वास आदि का प्रामाणिक चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में जीवन है—अनुभूत जीवन, भोगा हुआ जीवन, भोगा हुआ यथार्थ भी। मिश्रजी के उपन्यासों का शिल्पगत वैशिष्ट्य प्रेमचंद-पूर्व उपन्यास साहित्य की गौरवपूर्ण उपलब्धि है। उनमें आंचलिकता की आभा है, लोक-तत्त्वों की मर्मिकता है। ये लेखकीय कौशल के अनुपम उदाहरण हैं।

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