Bahishte Zahara

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
नासिरा शर्मा
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani Prakashan
Author:
नासिरा शर्मा
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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292

बहिश्ते-जहरा –
आज के लेखक का फ़र्ज़ क्या है? क्या क़लम को राजनीति के हाथों बेच दे या फिर उसे राजनीति के प्रहार से जख़्मी इन्सानी ज़िन्दगियों की पर्दाकुशाई में समर्पित कर दे?
यह विचार ‘बहिश्ते-जहरा’ उपन्यास की लेखिका नासिरा शर्मा के हैं, जो न केवल ईरान की क्रान्ति की चश्मदीद गवाह रही है बल्कि क़लम द्वारा अवाम के उस जद्दोजहद में शामिल भी हुई हैं।
उनका उपन्यास ‘बहिश्ते जहरा’ ईरानी क्रान्ति पर लिखा विश्व का पहला ऐसा उपन्यास है जो एक तरफ़ पचास साल पुराने पहलवी साम्राज्य के उखड़ने और इस्लामिक गणतन्त्र के बनने की गाथा कहता है तो दूसरी तरफ़ मानवीय सरोकारों और आम इन्सान की आवश्यकताओं की पुरज़ोर वकालत करता नज़र आता है। ज़बान और बयान की आज़ादी के लिए संघर्षरत बुद्धिजीवियों का दर्दनाक अफ़साना सुनाना भी नहीं भूलता जो इतिहास के पन्नों पर दर्ज उनकी कुर्बानी व नाकाम तमन्नाओं का एक ख़ूनी मर्सियाह बन उभरता है। जिसका गवाह तेहरान का विस्तृत कब्रिस्तान ‘बहिश्ते-जहरा’ है। जहाँ ईरान की जवान पीढ़ी ज़मीन के आगोश में दफ़न है। समय का बहाव और घटनाओं का कालचक्र इस उपन्यास में अपनी सहजता के बावजूद तीव्र गति से प्रवाहित नज़र आता है जो इस बात का गवाह है कि ईरानी क्रान्ति के दौरान दो महाशक्तियों के बीच आपसी रस्साक़शी ने भी स्थिति को सुलझने से ज़्यादा उलझाया है। न पूर्व न पश्चिम की खुमैनी नीति ने आज भी ईरान को अमेरिका से पंजा लड़ाने के लिए मुसतैद रखा है – संघर्ष अभी जारी है।
…ज़बान और बयान का भी और आर्थिक जद्दोजहद का भी।
अन्तिम पृष्ठ आवरण –
“यह रही अख़्तर की क़ब्र!” खड़े होते हुए कहा। सूसन ने सीधे “मुजाहिदीने ख़ल्क की कब्र वह भी यहाँ” मलीहा ने ताज्जुब से कहा। क़ब्र पर ताज़ा अधखिली लाल के फूल की एक शाख रखी हुई थी। क़ब्र भी गीली थी। लग रहा था कोई सुबह घर से आया था और क़ब्र धो कर फूल रख कर चला गया। क़ब्र पर हँसती हुई अख़्तर की रंगीन तस्वीर थी। चेक का स्कर्ट और उसी रंग के सादे कपड़े का कालर वाला ब्लाउज़ पहने थी। साँवले माथे पर बाल की एक पड़ी थी। यह स्कर्ट और ब्लाउज़ उसकी १८वीं वर्षगाँठ पर उसने पहना था। तस्वीर के नीचे लिखा था, “उम्र २३ वर्ष, शहादत १९८०।” तीनों वहीं बैठ गयीं और फ़ातेहा पढ़ने लगीं।

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Description

बहिश्ते-जहरा –
आज के लेखक का फ़र्ज़ क्या है? क्या क़लम को राजनीति के हाथों बेच दे या फिर उसे राजनीति के प्रहार से जख़्मी इन्सानी ज़िन्दगियों की पर्दाकुशाई में समर्पित कर दे?
यह विचार ‘बहिश्ते-जहरा’ उपन्यास की लेखिका नासिरा शर्मा के हैं, जो न केवल ईरान की क्रान्ति की चश्मदीद गवाह रही है बल्कि क़लम द्वारा अवाम के उस जद्दोजहद में शामिल भी हुई हैं।
उनका उपन्यास ‘बहिश्ते जहरा’ ईरानी क्रान्ति पर लिखा विश्व का पहला ऐसा उपन्यास है जो एक तरफ़ पचास साल पुराने पहलवी साम्राज्य के उखड़ने और इस्लामिक गणतन्त्र के बनने की गाथा कहता है तो दूसरी तरफ़ मानवीय सरोकारों और आम इन्सान की आवश्यकताओं की पुरज़ोर वकालत करता नज़र आता है। ज़बान और बयान की आज़ादी के लिए संघर्षरत बुद्धिजीवियों का दर्दनाक अफ़साना सुनाना भी नहीं भूलता जो इतिहास के पन्नों पर दर्ज उनकी कुर्बानी व नाकाम तमन्नाओं का एक ख़ूनी मर्सियाह बन उभरता है। जिसका गवाह तेहरान का विस्तृत कब्रिस्तान ‘बहिश्ते-जहरा’ है। जहाँ ईरान की जवान पीढ़ी ज़मीन के आगोश में दफ़न है। समय का बहाव और घटनाओं का कालचक्र इस उपन्यास में अपनी सहजता के बावजूद तीव्र गति से प्रवाहित नज़र आता है जो इस बात का गवाह है कि ईरानी क्रान्ति के दौरान दो महाशक्तियों के बीच आपसी रस्साक़शी ने भी स्थिति को सुलझने से ज़्यादा उलझाया है। न पूर्व न पश्चिम की खुमैनी नीति ने आज भी ईरान को अमेरिका से पंजा लड़ाने के लिए मुसतैद रखा है – संघर्ष अभी जारी है।
…ज़बान और बयान का भी और आर्थिक जद्दोजहद का भी।
अन्तिम पृष्ठ आवरण –
“यह रही अख़्तर की क़ब्र!” खड़े होते हुए कहा। सूसन ने सीधे “मुजाहिदीने ख़ल्क की कब्र वह भी यहाँ” मलीहा ने ताज्जुब से कहा। क़ब्र पर ताज़ा अधखिली लाल के फूल की एक शाख रखी हुई थी। क़ब्र भी गीली थी। लग रहा था कोई सुबह घर से आया था और क़ब्र धो कर फूल रख कर चला गया। क़ब्र पर हँसती हुई अख़्तर की रंगीन तस्वीर थी। चेक का स्कर्ट और उसी रंग के सादे कपड़े का कालर वाला ब्लाउज़ पहने थी। साँवले माथे पर बाल की एक पड़ी थी। यह स्कर्ट और ब्लाउज़ उसकी १८वीं वर्षगाँठ पर उसने पहना था। तस्वीर के नीचे लिखा था, “उम्र २३ वर्ष, शहादत १९८०।” तीनों वहीं बैठ गयीं और फ़ातेहा पढ़ने लगीं।

About Author

नासिरा शर्मा - 1948 में इलाहाबाद (उ. प्र.) में जन्मी नासिरा शर्मा को साहित्य के संस्कार विरासत में मिले। फ़ारसी भाषा साहित्य में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.ए. किया हिन्दी, उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी और पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। वह ईरानी समाज और राजनीति के अतिरिक्त साहित्य, कला और संस्कृति विषयों की विशेषज्ञ हैं। इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, सीरिया तथा भारत के राजनीतिज्ञों तथा प्रसिद्ध बुद्धिजीवियों के साथ साक्षात्कार किये जो बहुचर्चित हुए। युद्ध बन्दियों पर जर्मन व फ्रांसीसी दूरदर्शन के लिए बनी फ़िल्म में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। साथ ही साथ स्वतन्त्र पत्रकारिता में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उपन्यास बहिश्ते-ज़हरा, शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, ज़िन्दा मुहावरे, अक्षयवट, कुइयाँजान, ज़ीरो रोड, पारिजात, काग़ज की नाव, अजनबी जजीरा, शब्द पखेरू, दूसरी जन्नत, कहानी संग्रह शामी काग़ज़, पत्थरगली, इब्ने मरियम, संगसार, सबीना के चालीस चोर, ख़ुदा की वापसी, दूसरा ताजमहल, इन्सानी नस्ल, बुतख़ाना, रिपोर्ताज़ - जहाँ फौव्वारे लहू रोते हैं; संस्मरण यादों के गलियारे; लेख संग्रह किताब के बहाने, राष्ट्र और मुसलमान, औरत के लिए औरत, औरत की आवाज़, औरत की दुनिया; अध्ययन अफ़ग़ानिस्तान बुज़क़शी का मैदान, मरजीना का देश इराक़ अनुवाद : शाहनामा-ए-फ़िरदौसी, काइकोज आफ़ इरानियन रेवुलूशन : प्रोटेस्ट पोयट्री, बर्निंग पायर, काली छोटी मछली (समदबहुरंगी की कहानियाँ); इसके अलावा 6 खण्डों में अफ्रो-एशिया की चुनी हुई रचनाएँ, निजामी गंजवी, अत्तार, मौलाना रूमी की चुनी हुई मसनवियों और 'क़िस्सा जाम का' (खुरासान की लोककथाएँ) का अनुवाद; नाटक पत्थर गली, सबीना के चालीस चोर, दहलीज़, इब्ने मरियम, प्लेटफार्म नम्बर सात; बाल साहित्य : भूतों का मैकडोनल, दिल्लू दीमक (उपन्यास), दर्द का रिश्ता, गुल्लू, नवसाक्षरों के लिए धन्यवाद धन्यवाद, पढ़ने का हक़, गिल्लो बी, सच्ची सहेली, एक थी सुल्ताना, टी.वी. फ़िल्म व सीरियल : तड़प, माँ काली मोहिनी, आया वसंत सखी, सेमल का दरख्त (टेलीफ़िल्म), शाल्मली, दो बहनें, वापसी (सीरियल)।

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