Bache Rahne Ki Gunjaish

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
शिव कुमार शिव
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
शिव कुमार शिव
Language:
Hindi
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Hardback

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268

बचे रहने की गुंजाइश –
संवेदना की अतल गहराइयों में आवाहन करते कल्पना के आकाश में संचरण करते कवि-कर्म को तलवार की धार पर चलना पड़ता है। एक दृष्टि सम्पन्न कवि को लेखनी ‘क्या’ और ‘कैसे’ के साथ-साथ ‘क्यों’ को भी साधती चलती है। अक्सर आक्रोशित कवि को आँसुओं, उच्छ्वासों और आहों से लहूलुहान होना पड़ता है। शिव कुमार शिव की कविताओं से गुज़रते हुए ऐसे ही लहूलुहान कवि का अक्स उभरता है और इसीलिए ‘बचे रहने की गुंजाइश’ संकलन की कविताएँ एक ओर गहरा अवसाद छोड़ती हैं तो दूसरी ओर अवसाद से उबारते हुए आशा की नयी किरण भी सृजित करती हैं। कवि की दृष्टि व्यापक है। वह अभावग्रस्त, शोषित, समय के हाथों छले गये सामान्य जन की विडम्बनाओं से पीड़ित है तो जीवन के उतार-चढ़ाव में आती- जाती, टकराती भावनाओं से भी रूबरू होता है पर उनकी अभिव्यक्ति में वह व्यक्तिपरक नहीं रहता बल्कि ख़ुद को ऐसा खो देता है कि ये भावनाएँ पाठक के अन्तर में समाती हुई उसकी अपनी हो जाती हैं। यही कारण है कि राधा बाबू को याद करते कवि रुदन जैसे नितान्त निजी अहसास को अकेले में सीमित न रख, उसे सार्वभौम करता है, ‘सामूहिक रुदन’ की बात करते हुए ‘प्रलाप’ को ‘जश्न’ की शक्ल में अन्तर्विन्यस्त करता है। प्रेम, औरत, सपने, जंगल, कविता, परिवार, राजनीति, ठगी का खेल, राग, विराग, सबेरा, मित्र, माँ, पूनम का चाँद, शहर, धान रोपती औरतें, बच्चे, सरकार, मज़दूर, कुली, वेश्या-जीवन और समाज का लगभग सारा व्यापक परिवेश शिव कुमार शिव की रचनाओं के वितान में समाहित है। विरोध दर्ज करने की कवि की अपनी शैली है जिससे वे नारे नहीं लगते, चोट करते हैं। औरत की बात करते— सुनकर गालियाँ गाती हैं लोरियाँ। उसे सारे मर्द एक ही माँ के जाये से लगते हैं— जैसी पंक्तियाँ क़लम की तीखी धार का अहसास कराती हैं, जो प्रायः पूरे संकलन में भरी पड़ी हैं। असमय चले गये शिव कुमार शिव को यह संकलन पूरे समय तक जीवित रखेगा।—प्रकाश देवकुलिश

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बचे रहने की गुंजाइश –
संवेदना की अतल गहराइयों में आवाहन करते कल्पना के आकाश में संचरण करते कवि-कर्म को तलवार की धार पर चलना पड़ता है। एक दृष्टि सम्पन्न कवि को लेखनी ‘क्या’ और ‘कैसे’ के साथ-साथ ‘क्यों’ को भी साधती चलती है। अक्सर आक्रोशित कवि को आँसुओं, उच्छ्वासों और आहों से लहूलुहान होना पड़ता है। शिव कुमार शिव की कविताओं से गुज़रते हुए ऐसे ही लहूलुहान कवि का अक्स उभरता है और इसीलिए ‘बचे रहने की गुंजाइश’ संकलन की कविताएँ एक ओर गहरा अवसाद छोड़ती हैं तो दूसरी ओर अवसाद से उबारते हुए आशा की नयी किरण भी सृजित करती हैं। कवि की दृष्टि व्यापक है। वह अभावग्रस्त, शोषित, समय के हाथों छले गये सामान्य जन की विडम्बनाओं से पीड़ित है तो जीवन के उतार-चढ़ाव में आती- जाती, टकराती भावनाओं से भी रूबरू होता है पर उनकी अभिव्यक्ति में वह व्यक्तिपरक नहीं रहता बल्कि ख़ुद को ऐसा खो देता है कि ये भावनाएँ पाठक के अन्तर में समाती हुई उसकी अपनी हो जाती हैं। यही कारण है कि राधा बाबू को याद करते कवि रुदन जैसे नितान्त निजी अहसास को अकेले में सीमित न रख, उसे सार्वभौम करता है, ‘सामूहिक रुदन’ की बात करते हुए ‘प्रलाप’ को ‘जश्न’ की शक्ल में अन्तर्विन्यस्त करता है। प्रेम, औरत, सपने, जंगल, कविता, परिवार, राजनीति, ठगी का खेल, राग, विराग, सबेरा, मित्र, माँ, पूनम का चाँद, शहर, धान रोपती औरतें, बच्चे, सरकार, मज़दूर, कुली, वेश्या-जीवन और समाज का लगभग सारा व्यापक परिवेश शिव कुमार शिव की रचनाओं के वितान में समाहित है। विरोध दर्ज करने की कवि की अपनी शैली है जिससे वे नारे नहीं लगते, चोट करते हैं। औरत की बात करते— सुनकर गालियाँ गाती हैं लोरियाँ। उसे सारे मर्द एक ही माँ के जाये से लगते हैं— जैसी पंक्तियाँ क़लम की तीखी धार का अहसास कराती हैं, जो प्रायः पूरे संकलन में भरी पड़ी हैं। असमय चले गये शिव कुमार शिव को यह संकलन पूरे समय तक जीवित रखेगा।—प्रकाश देवकुलिश

About Author

शिव कुमार शिव - जन्म: 30 जुलाई, 1951। प्रकाशित कृतियाँ: कथा-संग्रह— देहदान, जूते, दहलीज़, मुक्ति, शताब्दी का सच। उपन्यास— राग-विराग, तुम्हारे हिस्से का चाँद, महुआ घटवारिन, वन तुलसी की गन्ध, आगे सड़क बन्द है; नाटक— और दुनिया टिकी रहेगी। सम्पादन: कथा-यात्रा (भागलपुर के लेखकों की कहानियाँ), शंकरलाल बाजोरिया स्मृति ग्रन्थ, युवा महोत्सव (तिलका माँझी वि.वि. की पत्रिका), साक्षी हैं पीढ़ियाँ (मोती मातृ सेवा सदन, भागलपुर के स्वर्ण जयन्ती वर्ष पर)। संस्थापक सम्पादक: 'क़िस्सा' पत्रिका। देहावसान: 28 अप्रैल, 2021।

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