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Asam ki Janjatiyan : Lokpaksh evam Kahaniyan
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
सम्पादन रीतामणि वैश्य
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
सम्पादन रीतामणि वैश्य
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹750 ₹525
Save: 30%
In stock
Ships within:
1-4 Days
In stock
ISBN:
SKU
9789357753890
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
390
जनजातियों में कुछ एक तरह की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। जनजातीय लोग एक ही जगह के आदिवासी होते हैं, उनकी भाषा एक ही होती है। वे अपेक्षाकृत दुर्गम, सरहदी इलाक़े में बसना पसन्द करते हैं । जनजातीय लोग अपने लिए खुद सामग्री प्रस्तुत करते हैं। वे राजनैतिक रूप से संगठित होते हैं। वे लोग अपनी संस्कृति की रक्षा को लेकर तत्पर दिखायी पड़ते हैं। उनमें प्रथा के अनुसार क़ानून का शक्तिशाली प्रभाव लक्षित होता है। जनजातीय समाज में जातिभेद प्रथा की व्यवस्था नहीं है ।
जनजातियों में इन समताओं के होते हुए भी कई विषमताएँ हैं। इन जनजातियों पर अध्ययन बहुत कम हुआ है। ख़ासकर हिन्दी भाषा में असम की जनजातियों के अध्ययन का काम बहुत ही कम हुआ है। इस सन्दर्भ में इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि बीच-बीच में दो-एक आलेख या पुस्तकों का प्रकाशन होता रहा है पर समग्र रूप से जनजातियों पर अध्ययन कम ही हुआ है। इस पुस्तक में असम की कुल ग्यारह जनजातियों-बड़ो, मिचिङ, राभा, तिवा, हाजङ, कार्बि, गारो, टाइ फाके, डिमाचा और कुकि को निकटता से देखने का प्रयास किया गया है। इस क्रम में हिन्दी के प्राध्यापकों एवं शोधार्थियों ने अथक परिश्रम किया है। केवल किताब पर निर्भर न रहकर उन्होंने क्षेत्र – अध्ययन का काम भी किया है, विविध जनजातियों के लोगों से मिले और उनसे प्रत्यक्ष रूप से भी तथ्यों का संग्रह किया है। यह एक प्रयास है असम की जनजातियों के जीवन के विविध पक्षों को संक्षेप में ही सही, पर समग्रता से उकेरने का। एक ही पुस्तक में सभी जनजातियों को सम्मिलित करना सम्भव न था । इसीलिए संख्या और स्वीकृति के हिसाब से ग्यारह जनजातियों को यहाँ लिया गया है।
असम विविध जनजातियों की मिलन-भूमि है । सामाजिक रूप से ये जनजातियाँ प्रदेश के अन्य लोगों से पिछड़ी हुई हैं। यही कारण है कि इन जनजातियों का साहित्य भी पिछड़ा हुआ है। यूँ कहें कि असम की जनजातियों के साहित्य का यह अंकुरित काल है। भले ही आज से लगभग कई दशक पहले इनके साहित्य-सृजन की प्रक्रिया का शुभारम्भ हो चुका था, पर फिर भी देश के दूसरे प्रतिष्ठित साहित्य की अपेक्षा इनके साहित्य का विकास नहीं हो पा रहा है। इस क्षेत्र में बड़ो साहित्य सबसे आगे है। इन जनजातियों का मौखिक साहित्य तो मिल जाता है, पर आवश्यक संरक्षण के अभाव में यह भी समय के साथ-साथ विलुप्त होता जा रहा है। लिपि का अभाव जनजातीय साहित्य की सबसे बड़ी चुनौती है।
– पुस्तक की भूमिका से
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Description
जनजातियों में कुछ एक तरह की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। जनजातीय लोग एक ही जगह के आदिवासी होते हैं, उनकी भाषा एक ही होती है। वे अपेक्षाकृत दुर्गम, सरहदी इलाक़े में बसना पसन्द करते हैं । जनजातीय लोग अपने लिए खुद सामग्री प्रस्तुत करते हैं। वे राजनैतिक रूप से संगठित होते हैं। वे लोग अपनी संस्कृति की रक्षा को लेकर तत्पर दिखायी पड़ते हैं। उनमें प्रथा के अनुसार क़ानून का शक्तिशाली प्रभाव लक्षित होता है। जनजातीय समाज में जातिभेद प्रथा की व्यवस्था नहीं है ।
जनजातियों में इन समताओं के होते हुए भी कई विषमताएँ हैं। इन जनजातियों पर अध्ययन बहुत कम हुआ है। ख़ासकर हिन्दी भाषा में असम की जनजातियों के अध्ययन का काम बहुत ही कम हुआ है। इस सन्दर्भ में इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि बीच-बीच में दो-एक आलेख या पुस्तकों का प्रकाशन होता रहा है पर समग्र रूप से जनजातियों पर अध्ययन कम ही हुआ है। इस पुस्तक में असम की कुल ग्यारह जनजातियों-बड़ो, मिचिङ, राभा, तिवा, हाजङ, कार्बि, गारो, टाइ फाके, डिमाचा और कुकि को निकटता से देखने का प्रयास किया गया है। इस क्रम में हिन्दी के प्राध्यापकों एवं शोधार्थियों ने अथक परिश्रम किया है। केवल किताब पर निर्भर न रहकर उन्होंने क्षेत्र – अध्ययन का काम भी किया है, विविध जनजातियों के लोगों से मिले और उनसे प्रत्यक्ष रूप से भी तथ्यों का संग्रह किया है। यह एक प्रयास है असम की जनजातियों के जीवन के विविध पक्षों को संक्षेप में ही सही, पर समग्रता से उकेरने का। एक ही पुस्तक में सभी जनजातियों को सम्मिलित करना सम्भव न था । इसीलिए संख्या और स्वीकृति के हिसाब से ग्यारह जनजातियों को यहाँ लिया गया है।
असम विविध जनजातियों की मिलन-भूमि है । सामाजिक रूप से ये जनजातियाँ प्रदेश के अन्य लोगों से पिछड़ी हुई हैं। यही कारण है कि इन जनजातियों का साहित्य भी पिछड़ा हुआ है। यूँ कहें कि असम की जनजातियों के साहित्य का यह अंकुरित काल है। भले ही आज से लगभग कई दशक पहले इनके साहित्य-सृजन की प्रक्रिया का शुभारम्भ हो चुका था, पर फिर भी देश के दूसरे प्रतिष्ठित साहित्य की अपेक्षा इनके साहित्य का विकास नहीं हो पा रहा है। इस क्षेत्र में बड़ो साहित्य सबसे आगे है। इन जनजातियों का मौखिक साहित्य तो मिल जाता है, पर आवश्यक संरक्षण के अभाव में यह भी समय के साथ-साथ विलुप्त होता जा रहा है। लिपि का अभाव जनजातीय साहित्य की सबसे बड़ी चुनौती है।
– पुस्तक की भूमिका से
About Author
रीतामणि वैश्य गौहाटी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की सह-आचार्य हैं। आपने कॉटन कॉलेज से स्नातक और गौहाटी विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। आपने गौहाटी विश्वविद्यालय से ही 'नागार्जुन के उपन्यासों में चित्रित समस्याओं का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर पीएच.डी. की। आपके निर्देशन में कई शोधार्थियों को एम.फिल. और पीएच.डी. की डिग्री मिली है। वर्तमान में आपके निर्देशन में कई विद्यार्थी पीएच. डी. कर रहे हैं।आप पूर्वोत्तर की विशिष्ट हिन्दी लेखिका के रूप में जानी जाती हैं। आप असमिया और हिन्दी दोनों भाषाओं में लेखन कार्य करती आ रही हैं। हिन्दी में सर्जनात्मक लेखन के प्रति आपकी विशेष रुचि रही है। कहानी आपकी प्रिय विधा है। आप पत्रिकाओं की सम्पादक होने के साथ-साथ एक सफल अनुवादक भी हैं। पिछले कई वर्षों से आप पूर्वोत्तर भारत के विविध पहलुओं को हिन्दी के जरिये प्रकाशित करने का काम करती आ रही हैं।प्रकाशन : असम की जनजातियाँ लोकपक्ष एवं कहानियाँ, लोहित किनारे, रुक्मिणी हरण नाट, हिन्दी साहित्यालोचना (असमिया), भारतीय भक्ति आन्दोलनत असभर अवदान (असमिया), हिन्दी गल्पर मौ-कोह (हिन्दी की कालजयी कहानियों का असमिया अनुवाद), सीमान्तर संवेदन ( असमिया में अनूदित काव्य-संकलन) ऐज़ डिपिक्टेड इन द नोवेल्स ऑफ़ नागार्जुन (अंग्रेज़ी)।प्रकाशनाधीन पुस्तकें : पूर्वोत्तर भारत का भक्ति आन्दोलन और शंकरदेव, असम का जातीय त्योहार बिह भक्ति आन्दोलन की अनमोल निधि शंकरदेव के नाट (विश्लेषण, लिप्यन्तरण एवं अनुवाद), भक्ति आन्दोलन की अनमोल निधि माघवदेव के नाट (विश्लेषण, लिप्यन्तरण एवं अनुवाद), माधवदेव कृत आदिकाण्ड रामायण (लिप्यन्तरण एवं हिन्दी अनुवाद), भूपेन हजारिका जीवन और गीत।पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन : 'विश्व हिन्दी साहित्य', 'साहित्य यात्रा', 'मानवाधिकार पत्रिका : नयी दिशाएँ, 1 "पूर्वोत्तर सृजन पत्रिका', 'स्नेहित', 'दैनिक पूर्वोदय' (समाचार-पत्र) आदि में कहानियाँ प्रकाशित 'वागर्थ, 'समन्वय पूर्वोत्तर', 'भाषा', 'विश्वभारती पत्रिका', 'पंचशील शोध समीक्षा', 'समसामयिक सृजन', 'प्रान्तस्वर' आदि पत्रिकाओं में शोध आलेखों का प्रकाशन ।सम्पादन : 'पूर्वोदय शोध मीमांसा', 'शोध-चिन्तन पत्रिका' (ऑनलाइन), 'पूर्वोत्तर सृजन पत्रिका' (ऑनलाइन) का सम्पादन ।पुरस्कार एवं सम्मान : वैश्य को असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों का अनुवाद लोहित : किनारे के लिए सन् 2015 में केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिन्दीतर भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार' से सम्मानित किया गया है। वे सन् 2022 में नागरी लिपि परिषद् के 'श्रीमती रानीदेवी बघेल स्मृति नागरी सेवी सम्मान' से भी सम्मानित की गयी हैं।
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