Ant Haazir Ho

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
मीरा कांत
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
मीरा कांत
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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अन्त हाज़िर हो –
कहीं-कहीं परिवार में कुछ रिश्ते मिथक बन गये हैं। ऐसे मिथकीय रिश्तों में पड़ी दरारों से हम कतराकर निकल जाते हैं। उन्हें ग़ैर-मौजूद घोषित करते रहते हैं। पर मिथक तो बहरहाल मिथक होते हैं, वास्तविकता नहीं। मीरा कान्त का नाटक ‘अन्त हाज़िर हो’ ऐसे ही कुछ पारिवारिक रिश्तों की दलदल में प्रवेश करता है। उन सीलबन्द रिश्तों की बखिया उधेड़ता है। उनकी सीवन को तार-तार करता है। परिवार के स्तर पर बलात्कार या व्यभिचार के मामले 21वीं सदी की खोज नहीं हैं। ये सदा से रहे हैं पर सचेत समाज के खुलेपन में उजागर अधिक हुए हैं, सार्वजनिक तौर पर।
यह नाटक जीवन की उन स्थितियों व घटनाओं को मंच पर लाता है जो छोटी उम्र से ही किसी बालिका का दुःस्वप्न बन जाती हैं। यह समाज का दुर्भाग्य है कि वह पारिवारिक व्यवस्था में घुन की तरह छिपी बैठी इन स्थितियों व मनस्थितियों को चावल में से कंकर की तरह निकाल बाहर करने की हिम्मत नहीं। रखता। इसके विपरीत इसे किसी कोने में धकेलकर ख़ुद बाहर आ जाता है, यह जताते हुए कि कहीं कुछ ग़लत नहीं।
यह नाटक पारिवारिक व्यभिचार या बलात्कार की कथा नहीं, रिश्तों में ग़ैर-ईमानदारी की कथा है। विश्वासघात की कहानी है— पत्नी के साथ, बेटी के साथ और रिश्तों की मर्यादा के साथ समाज की संरचना मर्यादा की जिन ईंटों से हुई है, उन ईंटों के साथ।
‘अन्त हाज़िर हो’ उन स्थितियों का नाटक है जब घर सुरक्षित चहारदीवारी का प्रतीक न होकर ख़तरा बन जाता है। जब घर में भी घात लगी हो और वह घातक बन जाये। यह घरेलू हिंसा और बलात्कार से कहीं आगे जाकर मानवता की टूटती साँसों का नाटक है।

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Description

अन्त हाज़िर हो –
कहीं-कहीं परिवार में कुछ रिश्ते मिथक बन गये हैं। ऐसे मिथकीय रिश्तों में पड़ी दरारों से हम कतराकर निकल जाते हैं। उन्हें ग़ैर-मौजूद घोषित करते रहते हैं। पर मिथक तो बहरहाल मिथक होते हैं, वास्तविकता नहीं। मीरा कान्त का नाटक ‘अन्त हाज़िर हो’ ऐसे ही कुछ पारिवारिक रिश्तों की दलदल में प्रवेश करता है। उन सीलबन्द रिश्तों की बखिया उधेड़ता है। उनकी सीवन को तार-तार करता है। परिवार के स्तर पर बलात्कार या व्यभिचार के मामले 21वीं सदी की खोज नहीं हैं। ये सदा से रहे हैं पर सचेत समाज के खुलेपन में उजागर अधिक हुए हैं, सार्वजनिक तौर पर।
यह नाटक जीवन की उन स्थितियों व घटनाओं को मंच पर लाता है जो छोटी उम्र से ही किसी बालिका का दुःस्वप्न बन जाती हैं। यह समाज का दुर्भाग्य है कि वह पारिवारिक व्यवस्था में घुन की तरह छिपी बैठी इन स्थितियों व मनस्थितियों को चावल में से कंकर की तरह निकाल बाहर करने की हिम्मत नहीं। रखता। इसके विपरीत इसे किसी कोने में धकेलकर ख़ुद बाहर आ जाता है, यह जताते हुए कि कहीं कुछ ग़लत नहीं।
यह नाटक पारिवारिक व्यभिचार या बलात्कार की कथा नहीं, रिश्तों में ग़ैर-ईमानदारी की कथा है। विश्वासघात की कहानी है— पत्नी के साथ, बेटी के साथ और रिश्तों की मर्यादा के साथ समाज की संरचना मर्यादा की जिन ईंटों से हुई है, उन ईंटों के साथ।
‘अन्त हाज़िर हो’ उन स्थितियों का नाटक है जब घर सुरक्षित चहारदीवारी का प्रतीक न होकर ख़तरा बन जाता है। जब घर में भी घात लगी हो और वह घातक बन जाये। यह घरेलू हिंसा और बलात्कार से कहीं आगे जाकर मानवता की टूटती साँसों का नाटक है।

About Author

मीरा कान्त - 1958 में, श्रीनगर में जन्म। प्रकाशन: 'हाइफ़न', 'काग़ज़ी बुर्ज' और 'गली दुल्हनवाली' (कहानी-संग्रह); 'ततःकिम्', 'उर्फ़ हिटलर' और 'एक कोई था कहीं नहीं-सा' (उपन्यास); 'ईहामृग', 'नेपथ्य राग', 'भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर', 'कन्धे पर बैठा था शाप' और 'हुमा को उड़ जाने दो' (नाटक); 'पुनरपि दिव्या' (नाट्य रूपान्तर) तथा 'अन्तर्राष्ट्रीय महिला दशक और हिन्दी पत्रकारिता' शोधपरक ग्रन्थ 'मीराँ : मुक्ति की साधिका' का सम्पादन। मंचन: 'ईहामृग' कालिदास नाट्य समारोह, उज्जैन में व 'नेपथ्य राग' भारत रंग महोत्सव 2004 में मंचित। 'काली बर्फ़' तथा 'दिव्या' का श्रीराम सेंटर, दिल्ली; 'भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर' का बनारस, कलकत्ता व इलाहाबाद; 'कन्धे पर बैठा था शाप' का भोपाल व दिल्ली और 'व्यथा सतीसर' व 'अन्त हाज़िर हो' का जम्मू में मंचन। पुरस्कार/सम्मान: 'नेपथ्य राग' के लिए वर्ष 2003 में मोहन राकेश सम्मान (प्रथम पुरस्कार), 'ईहामृग' के लिए सेठ गोविन्द दास सम्मान (2003), 'ततःकिम्' के लिए अम्बिकाप्रसाद दिव्य स्मृति सम्मान (2004), 'भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर' के लिए डॉ. गोकुल चन्द्र गांगुली पुरस्कार (2008), 'उत्तर-प्रश्न' के लिए मोहन राकेश सम्मान (प्रथम पुरस्कार) 2008 एवं हिन्दी अकादमी, दिल्ली के साहित्यकार सम्मान (2005-6) से अलंकृत।

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