Andhere Ke Rang (PB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Mukund Laath
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
Author:
Mukund Laath
Language:
Hindi
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Hardback

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मुकुन्द लाठ हमारे मूर्धन्य विचारकों और संगीतवेत्ताओं में से एक हैं। सुखद संयोग यह है कि उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं और वे अपने ढंग के अकेले कवि हैं। विस्मय की बात यह है कि उनकी कविता में संसार की पदार्थमयता और उनकी सहज वैचारिकता में न तो कोई अलगाव है और न ही एक का दूसरे पर कोई बोझ। वे अपने आसपास को जिस सजग संवेदनशीलता और नन्हीं सचाइयों में देख पाते हैं, वह अनोखा गुण है। उनके अवलोकन में सूक्ष्मता है, उनकी अभिव्यक्ति में सफ़ाई है। वे मर्म के कवि हैं, किसी विचार के प्रवक्ता नहीं। उनकी कविता का वितान बड़ा है पर उनमें सहज विनय है, कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं। वे सहज भाव से कह पाते हैं : ‘उडऩा तो/चिडिय़ा से सीख लिया/अब तो आकाश कहाँ पूछता हूँ।’ उनके अलावा हिन्दी में और कवि हैं जो कह सके ‘है इन्हीं पत्तों में कहीं/ढूँढ़ना मत/पंख हूँ, आकाश है।’ रज़ा पुस्तक माला में अपनी आयु के आठवें दशक में लिखी गईं एक कवि की इन कविताओं को हम सादर-सहर्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।
—अशोक वाजपेयी

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Description

मुकुन्द लाठ हमारे मूर्धन्य विचारकों और संगीतवेत्ताओं में से एक हैं। सुखद संयोग यह है कि उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं और वे अपने ढंग के अकेले कवि हैं। विस्मय की बात यह है कि उनकी कविता में संसार की पदार्थमयता और उनकी सहज वैचारिकता में न तो कोई अलगाव है और न ही एक का दूसरे पर कोई बोझ। वे अपने आसपास को जिस सजग संवेदनशीलता और नन्हीं सचाइयों में देख पाते हैं, वह अनोखा गुण है। उनके अवलोकन में सूक्ष्मता है, उनकी अभिव्यक्ति में सफ़ाई है। वे मर्म के कवि हैं, किसी विचार के प्रवक्ता नहीं। उनकी कविता का वितान बड़ा है पर उनमें सहज विनय है, कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं। वे सहज भाव से कह पाते हैं : ‘उडऩा तो/चिडिय़ा से सीख लिया/अब तो आकाश कहाँ पूछता हूँ।’ उनके अलावा हिन्दी में और कवि हैं जो कह सके ‘है इन्हीं पत्तों में कहीं/ढूँढ़ना मत/पंख हूँ, आकाश है।’ रज़ा पुस्तक माला में अपनी आयु के आठवें दशक में लिखी गईं एक कवि की इन कविताओं को हम सादर-सहर्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।
—अशोक वाजपेयी

About Author

मुकुन्द लाठ

 

शिक्षा के साथ संगीत में विशेष प्रवृत्ति थी जो बनी रही। आप पंडित जसराज के शिष्य थे। अंग्रेज़ी में बी.ए. (ऑनर्स), फिर संस्कृत में एम.ए. किया। पश्चिम बर्लिन गए और वहाँ संस्कृत के प्राचीन संगीत-ग्रन्थ ‘दत्तिलम्’ का अनुवाद और विवेचन किया। भारत लौटकर इस काम को पूरा किया और इस पर पीएच.डी. ली।

1973 से 1997 तक राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के भारतीय इतिहास एवं संस्कृत विभाग में रहे। भारतीय संगीत, नृत्य, नाट्य, कला, साहित्य-सम्बन्धी चिन्तन और इतिहास पर हिन्दी-अंग्रेज़ी में लिखते रहे।

यशदेव शल्य के साथ दर्शन प्रतिष्ठान की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘उन्मीलन’ के सम्पादक और उसमें नियमित लेखन।

प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ : ‘ए स्टडी ऑफ़ दत्तिलम्’, ‘हाफ़ ए टेल’ (‘अर्धकथानक’ का अनुवाद), ‘द हिन्दी पदावली ऑफ़ नामदेव’ (‘कालावार्त’ के सहलेखन में), ‘ट्रान्सफ़ॉरमेशन ऐज़ क्रिएशन’, ‘संगीत एवं चिन्‍तन’, ‘स्वीकरण’, ‘तिर रही वन की गन्‍ध’, ‘धर्म-संकट’, ‘कर्म-चेतना के आयाम’, ‘क्या है क्या नहीं है’, ‘अनरहनी रहने दो’, ‘अँधेरे के रंग’, ‘गगनवट : संस्‍कृत मुक्‍तकों को स्‍वीकरण’, ‘भावन : साहित्‍य और अन्‍य कलाओं का अनुशीलन’ आदि।

सम्मान व पुरस्कार : ‘पद्मश्री’, ‘शंकर पुरस्कार’, ‘नरेश मेहता वाङ्मय पुरस्कार’, ‘फ़ेलो-संगीत नाट्य अकादेमी’।

निधन : 6 अगस्‍त, 2020

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