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देवनागरी मेँ हिन्दी लेखन: कुछ बातेँ

पिछले दशक के पूर्वार्द्ध मेँ लिप्यन्तरण सेवाओँ के सर्वसुलभ हो जाने से सोशल मीडिया पर देवनागरी मेँ हिन्दी लिखना प्रचलन मेँ आ गया। समय के साथ इसकी लोकप्रियता बढ़ती रही, जो निश्चित ही रोमन लिपि में लेखन के सापेक्ष एक सुखद परिवर्तन था; किन्तु इसी के साथ धीरे-धीरे यह भी स्पष्ट हो गया कि हिन्दी भले ही भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हो, पर इसे ठीक-ठीक लिख पाने की दक्षता बहुत ही कम लोगोँ मेँ है, कदाचित् इसी कारण आज भी अधिकांश जन रोमन मेँ ही हिन्दी लिखते हैँ। कितनी लज्जा का विषय है कि हिन्दी को अपनी मातृभाषा कहने वाली एक बड़ी जनसङ्ख्या के लिए दर्जनभर त्रुटियाँ किये बिना देवनागरी मेँ एक अनुच्छेद लिख पाना कष्टसाध्य है! प्रश्न यह है कि हम भला इस स्थिति मेँ पहुँच कैसे गये? इसका उत्तर है: औपनिवेशिक मानसिक-दासता मेँ सनी हमारी हीनभावना और अपनी भाषा के प्रति उदासीनता के कारण।

सामान्यतः, अभिभावकों का पूरा ध्यान मात्र इसबात पर रहता है कि उनका पाल्य किसी प्रकार फर्राटेदार अँग्रेज़ी लिखना-बोलना सीखकर यथाशीघ्र ‘सम्भ्रान्त-अभिजात्य वर्ग’ का सदस्य बन जाय; उसी मेँ उसका मोक्ष है। हिन्दी मेँ दक्ष होने से भला किसी को क्या लाभ मिलना है! इसीलिए, उसे अपने गाँव-पूर्वजोँ की मिट्टी से जुड़ी आञ्चलिक भाषा-बोलियोँ (यथा: अवधी, ब्रज, कौरवी, बुन्देलखण्डी, भोजपुरी आदि) से भी चार हाथ दूर रखा जाता है, ताकि भूले-से भी उसमेँ कोई ‘देहाती/गँवारू’ लक्षण न आ जाय, और वह पूर्णतः एक ‘मैकाले-पुत्र’ के रूप में ही बड़ा हो।

हिन्दी के इस पतन का बिम्ब आज-कल के समाचार-पत्रोँ और साहित्य-पुस्तकोँ की भाषा मेँ व्यापक रूप से देखा जा सकता है। एक समय था, जब छात्रोँ को हिन्दी के परिष्करण के लिए दैनिक समाचार-पत्र पढ़ने का परामर्श दिया जाता था, पर आज उनकी भाषा का स्तर इतना गिर गया है कि प्रत्येक राष्ट्रीय-दैनिक हरएक पृष्ठ पर दर्जनोँ अक्षम्य त्रुटियाँ डङ्के की चोट पर करता है। इसके विपरीत, अँग्रेज़ी के किसी भी प्रतिष्ठित समाचार-पत्र मेँ आप भाषा-सम्बन्धी एक भी त्रुटि ढूँढ़ने के लिए तरस जायँगे। ठीक यही भेद हिन्दी व अँग्रेज़ी मेँ छप रही पुस्तकोँ मेँ भी है। पूछिए स्वयं से कि यह अन्तर क्योँ है!

तो समाधान क्या है? सबसे पहले तो मानसिक पराधीनता से बाहर आइए; हीनभावना तज दीजिए। जहाँ तक सम्भव हो सके, हिन्दी मेँ ही बरतिए। रोमन मेँ लिखते होँ, तो देवनागरी मेँ लिखना आरम्भ कीजिए। हो सकता है प्रारम्भ में कठिनाई हो, पर कृपया समय निकालकर सुधार का सजग प्रयास कीजिए तथा दूसरोँ को ऐसा करने के लिए प्रेरित कीजिए। ‘मातृभाषा’ कहने भर से काम नहीँ चलने वाला, उस माँ का ध्यान भी आप और हमें ही रखना है। यह एक बहुत भारी भ्रम है कि भाषा केवल एक सञ्चार-माध्यम भर है; जी नहीं! भाषा संस्कृति व विरासत की एक जीवन्त वाहक है। अतः, जब आप अगली पीढ़ी को उनकी बोलियोँ से वञ्चित करते हैँ, तो आप वास्तव मेँ उन्हेँ उनकी सांस्कृतिक जड़ोँ से काट रहे होते हैँ। भगवान् के लिए यह पाप कदापि न करेँ! अपनी सन्तानोँ को अपनी आञ्चलिक भाषा-बोली अनिवार्य रूप से सिखाएँ।

इसके अतिरिक्त, सुधी पाठकों से मेरे दो विशेष निवेदन हैँ:

  •  पञ्चमाक्षर हिन्दी का आभूषण हैँ, इन्हेँ न बिसराएँ: नामानुरूप, संस्कृत/हिन्दी वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग के पाँचवेँ वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) को पञ्चमाक्षर या पञ्चम-वर्ण कहा जाता है। इन्हेँ ‘नासिक्य व्यञ्जन’ भी कहा जाता है क्योँकि इन सभी का उच्चारण स्थान नासिका है। पूर्व मेँ, टङ्कण व छपाई सम्बन्धी समस्याओँ के चलते एवं ‘सरलीकरण’ के प्रयासोँ के कारण पञ्चम-वर्णोँ  का स्थान अनुस्वार [ं] ने ले लिया, और कालान्तर मेँ यही प्रयोग रूढ़ हो गया। सौभाग्यवश, आज ऐसी कोई समस्या नहीँ है, और पञ्चमाक्षरोँ को सरलता-से प्रिण्टटाइप दोनोँ किया जा सकता है। थोड़ा यत्न करेँ तो इनका प्रयोग कठिन नहीँ है; कुछ दिन के अभ्यास के उपरान्त आपको यह सहज-ग्राह्य लगेगा।

उदाहरण के लिए, ‘कंकड़’ का उच्चारण चाहकर भी ‘कन्कड़’ या ‘कम्कड़’ नहीँ किया जा सकता; इसका उच्चारण आपके मुख से स्वाभाविकतः ‘कङ्कड़’ ही होगा, क्योंकि ‘क वर्ग’ के वर्ण ‘ङ्’ का उच्चारण-स्थल कण्ठ है, जबकि ‘न्’ व ‘म्’ का क्रमशः दन्त्य व ओष्ठ्य। यही पञ्चमाक्षरोँ की वैज्ञानिकता है; अतः इनकी उपेक्षा से हिन्दी का ह्रास हुआ है। इसीलिए, जहाँ तक सम्भव हो, ‘मंगल’, ‘चंचल’, ‘डंठल’, ‘कुंतल’, ‘चंबल’ नहीँ, अपितु ‘मङ्गल’, ‘चञ्चल’, ‘डण्ठल’, ‘कुन्तल’  व ‘चम्बल’ लिखेँ।

  • अनुस्वार व अनुनासिक मेँ भेद है, इसे समझें: अनुस्वार [ं] व अनुनासिक [ँ], जिन्हेँ बोल-चाल की भाषा मेँ क्रमशः बिन्दी व चन्द्र-बिन्दी कहा जाता है, भिन्न-भिन्न ध्वनियाँ हैँ। दुर्भाग्यवश, यह भेद भी ‘सरलीकरण’ के उन्हीँ प्रयासों की बलि चढ़ गया है। समाचार-पत्रोँ व पुस्तकोँ मेँ अब अनुस्वार का ही एकछत्र साम्राज्य है; अनुनासिक एक विलुप्तप्राय प्रजाति-सा होकर केवल व्याकरणिक पाठ्य-पुस्तकोँ तक सीमित रह गया है।

जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैँ, अनुस्वार का प्रयोग पञ्चम-वर्णीय व्यञ्जनोँ (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) के विकल्प के रूप मेँ होता है, जबकि अनुनासिक स्वरोँ की विशेषता है। ‘ऋ’ को छोड़कर प्रत्येक स्वर अनुनासिक हो सकता है।

अनुनासिक अर्थात् चन्द्र-बिन्दु का लोप हो जाने से उच्चारण सीखने-सिखाने मेँ कठिनाई होती है, और “वह हँस रहा है” के स्थान पर “वह हंस रहा है” जैसे हास्यास्पद प्रयोग देखने को मिलते हैँ। अतः इनपर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

यह भी ध्यातव्य है कि सम्बोधन मेँ अनुस्वार व अनुनासिक दोनोँ का प्रयोग त्रुटिकारक है। अतः, ‘दोस्तोँ!’ ‘भाइयोँ-बहनोँ!’ आदि सम्बोधन त्रुटिपूर्ण हैँ; यहाँ ‘दोस्तो!’ व ‘भाइयो-बहनो!’ ही ठीक है।

अन्त में, आप सभी को हिन्दी दिवस की मङ्गलकामनाएँ! आशा है कि वह दिन भी आये, जब किसी एहतराम इस्लाम को यह न लिखना पड़े:

“अपने हक़-अधिकार तक पहुँची नहीँ तो क्या हुआ!
ज्ञानियोँ के होँठ चढ़ पायी नहीँ तो क्या हुआ!
मातृभाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा सब तो है,
बस ज़रा व्यवहार मेँ हिन्दी नहीँ तो क्या हुआ!”


पाठकों की सुविधा हेतु कुछ उपयोगी सन्दर्भ-सामग्री:

  • ‘अच्छी हिन्दी’ – रामचन्द्र वर्म्मा – लोकभारती प्रकाशन
  • ‘मानक हिन्दी का स्वरूप’ – देवर्षि कलानाथ शास्त्री – राधाकृष्ण प्रकाशन
  • ‘हिन्दी वृहद् व्याकरणकोश’ – डॉ. के. आर महिया, डॉ. विमलेश वर्मा – ज्ञान वितान प्रकाशन
  • ‘हिन्दी की वर्तनी तथा शब्द-विश्लेषण’ – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी – वाणी प्रकाशन
  • ‘हिन्दी प्रयोग कोश’ – बदरीनाथ कपूर – लोकभारती प्रकाशन
  • भाषा के बहाने (YouTube Playlist) – डॉ. सुरेश पन्त – https://bit.ly/3Dke1TD

नीलाभ श्रीवास्तव



नीलाभ श्रीवास्तव का जन्म व प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा सङ्गमनगरी प्रयागराज में हुई। कम्प्यूटर विज्ञान में स्नातक हो जाने के उपरान्त उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में परास्नातक किया। मातृभाषा हिन्दी से प्रेम व उसमें अपनी विशेष रुचि की परिणितिस्वरूप वह वर्तमान में एक हिन्दी सम्पादक व अनुवादक के रूप में कार्यरत हैं। पुस्तकों मे रमे रहने के अतिरिक्त उन्हें लॉन-टेनिस देखना पसंद है।

Twitter: @srineelabh