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Thele Par Himalaya
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
धर्मवीर भारती
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
धर्मवीर भारती
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹399 ₹279
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In stock
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1-4 Days
In stock
ISBN:
SKU
9789355189240
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
164
ठेले पर हिमालय
ठेले पर हिमालय खासा दिलचस्प शीर्षक है न! और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाये मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी । मेरे मित्र का जन्म-स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोये रहे और खोये-खोये-से ही बोले, ‘यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।’ और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, ठेले पर हिमालय |
आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है । कल ठेले के बर्फ को देखकर वे मेरे मित्र उपन्यासकार जिस तरह स्मृतियों में डूब गये उस दर्द को समझता हूँ और जब ठेले पर हिमालय की बात कहकर हँसता हूँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना है। वे बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे ही क्षण में, ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने नहीं कहा था “… कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो… मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर?” और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी आऊँगा । के हाथ सन्देशा भेज दूँ… “नहीं बन्धु… मैं फिर लौट-लौट कर वहीं आऊँगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है… मैं करूँ तो क्या करूँ ?”
– इसी पुस्तक से
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Description
ठेले पर हिमालय
ठेले पर हिमालय खासा दिलचस्प शीर्षक है न! और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाये मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी । मेरे मित्र का जन्म-स्थान अल्मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोये रहे और खोये-खोये-से ही बोले, ‘यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।’ और तत्काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, ठेले पर हिमालय |
आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है । कल ठेले के बर्फ को देखकर वे मेरे मित्र उपन्यासकार जिस तरह स्मृतियों में डूब गये उस दर्द को समझता हूँ और जब ठेले पर हिमालय की बात कहकर हँसता हूँ तो वह उस दर्द को भुलाने का ही बहाना है। वे बर्फ की ऊँचाइयाँ बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं कि चौराहों पर खड़े, ठेले पर लदकर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे ही क्षण में, ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने नहीं कहा था “… कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो… मैं क्या कभी ऐसे भी रह सकूँगा वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर?” और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को किसी आऊँगा । के हाथ सन्देशा भेज दूँ… “नहीं बन्धु… मैं फिर लौट-लौट कर वहीं आऊँगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा आवास है। वहीं मन रमता है… मैं करूँ तो क्या करूँ ?”
– इसी पुस्तक से
About Author
धर्मवीर भारती -
जन्म: 25 दिसम्बर, 1926; इलाहाबाद (उ.प्र.)। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर वहीं अध्यापन कार्य। कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े। अन्ततः धर्मयुग के सम्पादक के रूप में हिन्दी पत्रकारिता को नयी गरिमा प्रदान की।
प्रमुख कृतियाँ : साँस की क़लम से, मेरी वाणी गैरिक वसना, कनुप्रिया, सात गीत वर्ष, ठण्डा लोहा, सपना अभी भी, गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा, बन्द गली का आख़िरी मकान, पश्यन्ती, कहनी अनकहनी, शब्दिता, अन्धा युग तथा मानव-मूल्य और साहित्य। 'पद्मश्री' सम्मान के साथ 'व्यास सम्मान' एवं अन्य अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत।
निधन: 4 सितम्बर, 1997 ( मुम्बई)।
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