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Bhasha Mein Langikta
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
आशुतोष शुक्ला
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
आशुतोष शुक्ला
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹380 ₹266
Save: 30%
In stock
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1-4 Days
In stock
ISBN:
SKU
9789390659661
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
193
भाषा में लैंगिकता –
भाषा सदैव सच नहीं बोलती है। कई बार वह जो कहती है वह झूठ होता है लेकिन उसे सच की तरह पेश किया जाता है क्योंकि सत्ता यही चाहती है जिससे उसके द्वारा किया गया शोषण और भेदभाव छिपा रहे। जैसे एक वाक्य है—’गाय दूध देती है’ और दूसरा वाक्य है—’जिसकी भी दुम उठाओ वही मादा नज़र आता है।’ दोनों ही वाक्य समाज में ख़ूब प्रचलित हैं लेकिन दोनों ही वाक्य झूठ बोलते हैं क्योंकि गाय कभी दूध नहीं देती है। हमेशा गाय से दूध छीन लिया जाता है और स्त्रियाँ ही कमज़ोर नहीं होती बल्कि पुरुष भी कमज़ोर होते हैं। इस प्रकार भाषा का प्रयोग सत्ता बहुत सोच-समझ कर अपने पक्ष में करती है। लुकाछिपी का खेल बच्चे ही नहीं खेलते बल्कि भाषा भी खेलती है। शिकायत सिर्फ़ इतनी है कि भाषा में स्त्री को ही हमेशा छिपा दिया जाता है। उसका दर्द, शोषण, संघर्ष भाषा में निर्गुण हो जाता है और पुरुष का वर्चस्व ही सगुण रूप ग्रहण कर लेता है।
समाज का सच्चा प्रतिबिम्ब भाषा में दिखाई देता है। समाज में रहने वाले सभी वर्गों, समूहों के समग्र अनुभवों एवं समूची भाव सम्पदा को उस भाषा में स्थान मिलना चाहिए। किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय, जातीय समुदाय या लैंगिक वर्ग को ऐसा अनुभव नहीं होना चाहिए कि उसे भाषा में प्रतिनिधित्व व समान अवसर नहीं प्रदान किया गया है। विशेष रूप से सशक्त जनों एवं एलजीबीटीक्यू समूह के लोगों की भी भाषा में बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए। वस्तुतः भाषा का स्वरूप एवं संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे सभी अपने को उसमें शामिल महसूस करें। कोई भी भाषा जितनी समावेशी होगी, उसका दायरा उतना ही विस्तृत होगा और उतनी ही वह दीर्घायु होगी।
समाज का वर्चस्ववादी समूह सबसे पहले भाषा में हाशिये के लोगों को अदृश्य करके अपने उद्देश्यों को पूरा करता है। भाषा में कमज़ोर वर्ग की अदृश्यता समाज में उस तबके की अस्मिता के नकार की पूर्वपीठिका होती है। यही कारण है कि आज दलित, स्त्री, आदिवासी भाषा में अपनी अदृश्यता को चिन्हित करके सवाल कर रहे हैं। अछूत, लंगड़ा-लूला, देहाती, जंगली, बाँझ, अभागिन जैसे शब्द केवल शब्द नहीं है बल्कि भाषा में वर्चस्ववादी ताक़त के शोषणकारी व षड्यन्त्रकारी मानसिकता के जीवन्त प्रमाण हैं। …इसी पुस्तक से
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Description
भाषा में लैंगिकता –
भाषा सदैव सच नहीं बोलती है। कई बार वह जो कहती है वह झूठ होता है लेकिन उसे सच की तरह पेश किया जाता है क्योंकि सत्ता यही चाहती है जिससे उसके द्वारा किया गया शोषण और भेदभाव छिपा रहे। जैसे एक वाक्य है—’गाय दूध देती है’ और दूसरा वाक्य है—’जिसकी भी दुम उठाओ वही मादा नज़र आता है।’ दोनों ही वाक्य समाज में ख़ूब प्रचलित हैं लेकिन दोनों ही वाक्य झूठ बोलते हैं क्योंकि गाय कभी दूध नहीं देती है। हमेशा गाय से दूध छीन लिया जाता है और स्त्रियाँ ही कमज़ोर नहीं होती बल्कि पुरुष भी कमज़ोर होते हैं। इस प्रकार भाषा का प्रयोग सत्ता बहुत सोच-समझ कर अपने पक्ष में करती है। लुकाछिपी का खेल बच्चे ही नहीं खेलते बल्कि भाषा भी खेलती है। शिकायत सिर्फ़ इतनी है कि भाषा में स्त्री को ही हमेशा छिपा दिया जाता है। उसका दर्द, शोषण, संघर्ष भाषा में निर्गुण हो जाता है और पुरुष का वर्चस्व ही सगुण रूप ग्रहण कर लेता है।
समाज का सच्चा प्रतिबिम्ब भाषा में दिखाई देता है। समाज में रहने वाले सभी वर्गों, समूहों के समग्र अनुभवों एवं समूची भाव सम्पदा को उस भाषा में स्थान मिलना चाहिए। किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय, जातीय समुदाय या लैंगिक वर्ग को ऐसा अनुभव नहीं होना चाहिए कि उसे भाषा में प्रतिनिधित्व व समान अवसर नहीं प्रदान किया गया है। विशेष रूप से सशक्त जनों एवं एलजीबीटीक्यू समूह के लोगों की भी भाषा में बराबर की हिस्सेदारी होनी चाहिए। वस्तुतः भाषा का स्वरूप एवं संरचना इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे सभी अपने को उसमें शामिल महसूस करें। कोई भी भाषा जितनी समावेशी होगी, उसका दायरा उतना ही विस्तृत होगा और उतनी ही वह दीर्घायु होगी।
समाज का वर्चस्ववादी समूह सबसे पहले भाषा में हाशिये के लोगों को अदृश्य करके अपने उद्देश्यों को पूरा करता है। भाषा में कमज़ोर वर्ग की अदृश्यता समाज में उस तबके की अस्मिता के नकार की पूर्वपीठिका होती है। यही कारण है कि आज दलित, स्त्री, आदिवासी भाषा में अपनी अदृश्यता को चिन्हित करके सवाल कर रहे हैं। अछूत, लंगड़ा-लूला, देहाती, जंगली, बाँझ, अभागिन जैसे शब्द केवल शब्द नहीं है बल्कि भाषा में वर्चस्ववादी ताक़त के शोषणकारी व षड्यन्त्रकारी मानसिकता के जीवन्त प्रमाण हैं। …इसी पुस्तक से
About Author
आशुतोष शुक्ल -
जन्म: रजुआपुर गाँव, हरदोई।
प्रारम्भिक शिक्षा: शाहजहाँपुर, कानपुर। उच्च शिक्षा: एम.ए., एम.फिल., पीएच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली)। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स और सेंट स्टीफेंस कॉलेज में अध्यापन के पश्चात इन दिनों लेडी श्रीराम कॉलेज फॉर विमेन में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
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