Shantinikatan Se Shivalik

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
शिवप्रसाद सिंह
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
शिवप्रसाद सिंह
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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शान्तिनिकेतन से शिवालिक –
हम एक अजीब दौर से गुज़र रहे हैं। परम्परा से अलगाव, मूल्यों से उदासीनता और ‘जो कुछ है’, उस सबसे घृणा का दौर कोई नयी चीज़ नहीं है। बहुत पहले यूरोप के कई देश इसी दौर से गुज़र चुके हैं। कमोबेश मात्रा में आज भी दुनिया के कई और काफ़ी हिस्सों में ऐसी ही कशमकश जारी है। किन्तु हमारे विद्रोह, व ग़ुस्सा और जुगुप्सा के भीतर एक विशेष बात है। यह है मनुष्यता के प्रति अविश्वास का भाव। यह एक गम्भीर बात है। तोड़-फोड़, गाली-गलौज, चीत्कार-फूत्कार, बेशर्मी-नंगई आदि मृत परम्पराओं को बदलने के इच्छुक बौद्धिक वर्ग के लिए कभी-कभी साधन होते हैं, पर इसे ही साध्य मानकर अपने ही हाथों घायल और क्षत-विक्षत मनुष्यता को क़ब्र में रख देने का प्रयत्न मूलतः अबौद्धिक है, इसमें भी सन्देह नहीं विद्रोह दिशाहारा न हो, संघर्ष असफल न बने, और खण्ड सन्त्रास हमारे मन से मनुष्यता की सारी सम्भावनाओं को पोंछ न दें, इसके लिए यह आयोजन एक अनिवार्यता बन गया।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी कतिपय प्राचीन धारणाओं के बावजूद हिन्दी के विरल व्यक्ति रहे हैं। उनके साहित्य में आस्था का एक ऐसा लचीला और नव्य रूप मिलता है, जिसे आज की हमारी पीढ़ी के साहित्यकार भी समझना पसन्द करेंगे बशर्ते कि वे आस्था की तमाम सम्भावनाओं को परखे बिना ही आस्थाहीन होने का संकल्प न ले चुके हों।
इस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के निबन्ध, संस्मरण और आलेख सम्मिलित हैं। पुस्तक के सम्पादक ने इन्हें जीवन-यज्ञ, इतिहास-दर्शन, सन्तुलित दृष्टि, अतीत कथा, निर्बन्ध चिन्तन तथा विविध जैसे विभिन्न शीर्षक खण्डों में नियोजित किया है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और सृजन की परिचय-परीक्षणात्मक सामग्री के अतिरिक्त पुस्तक के अन्त में कुछ पत्र भी संकलित हैं। ये पत्र सन् 1940 से 1960 के बीच समय-समय पर विभिन्न साहित्यकारों द्वारा द्विवेदीजी को लिखे गये हैं। ये हिन्दी के साहित्यिक विकास के दस्तावेज़ तो हैं ही, स्वतःस्फूर्त होने के कारण द्विवेदीजी के व्यक्तित्व और उनके साहित्यकार के विकास के साक्षी भी हैं। इन पत्रों से पण्डित जी के जीवन के विविध पक्षों पर बहुत स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। उनकी आर्थिक स्थिति, स्वभाव, साहित्यिक उपलब्धियाँ, संघर्ष और संकट के क्षण इन पत्रों में अच्छी तरह अभिव्यक्त हुए हैं। आशा है इनका प्रकाशन हिन्दी के इस विरल व्यक्तित्व को सही ढंग से समझने में सहायक होगा।
इस पुस्तक का प्रकाशन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर हुआ था। भारतीय ज्ञानपीठ इस दुर्लभ कृति का ‘पुनर्नवा संस्करण’ नवीन साज-सज्जा के साथ पाठकों को समर्पित करते हुए गौरव का अनुभव कर रहा है।

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शान्तिनिकेतन से शिवालिक –
हम एक अजीब दौर से गुज़र रहे हैं। परम्परा से अलगाव, मूल्यों से उदासीनता और ‘जो कुछ है’, उस सबसे घृणा का दौर कोई नयी चीज़ नहीं है। बहुत पहले यूरोप के कई देश इसी दौर से गुज़र चुके हैं। कमोबेश मात्रा में आज भी दुनिया के कई और काफ़ी हिस्सों में ऐसी ही कशमकश जारी है। किन्तु हमारे विद्रोह, व ग़ुस्सा और जुगुप्सा के भीतर एक विशेष बात है। यह है मनुष्यता के प्रति अविश्वास का भाव। यह एक गम्भीर बात है। तोड़-फोड़, गाली-गलौज, चीत्कार-फूत्कार, बेशर्मी-नंगई आदि मृत परम्पराओं को बदलने के इच्छुक बौद्धिक वर्ग के लिए कभी-कभी साधन होते हैं, पर इसे ही साध्य मानकर अपने ही हाथों घायल और क्षत-विक्षत मनुष्यता को क़ब्र में रख देने का प्रयत्न मूलतः अबौद्धिक है, इसमें भी सन्देह नहीं विद्रोह दिशाहारा न हो, संघर्ष असफल न बने, और खण्ड सन्त्रास हमारे मन से मनुष्यता की सारी सम्भावनाओं को पोंछ न दें, इसके लिए यह आयोजन एक अनिवार्यता बन गया।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी कतिपय प्राचीन धारणाओं के बावजूद हिन्दी के विरल व्यक्ति रहे हैं। उनके साहित्य में आस्था का एक ऐसा लचीला और नव्य रूप मिलता है, जिसे आज की हमारी पीढ़ी के साहित्यकार भी समझना पसन्द करेंगे बशर्ते कि वे आस्था की तमाम सम्भावनाओं को परखे बिना ही आस्थाहीन होने का संकल्प न ले चुके हों।
इस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों के निबन्ध, संस्मरण और आलेख सम्मिलित हैं। पुस्तक के सम्पादक ने इन्हें जीवन-यज्ञ, इतिहास-दर्शन, सन्तुलित दृष्टि, अतीत कथा, निर्बन्ध चिन्तन तथा विविध जैसे विभिन्न शीर्षक खण्डों में नियोजित किया है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और सृजन की परिचय-परीक्षणात्मक सामग्री के अतिरिक्त पुस्तक के अन्त में कुछ पत्र भी संकलित हैं। ये पत्र सन् 1940 से 1960 के बीच समय-समय पर विभिन्न साहित्यकारों द्वारा द्विवेदीजी को लिखे गये हैं। ये हिन्दी के साहित्यिक विकास के दस्तावेज़ तो हैं ही, स्वतःस्फूर्त होने के कारण द्विवेदीजी के व्यक्तित्व और उनके साहित्यकार के विकास के साक्षी भी हैं। इन पत्रों से पण्डित जी के जीवन के विविध पक्षों पर बहुत स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। उनकी आर्थिक स्थिति, स्वभाव, साहित्यिक उपलब्धियाँ, संघर्ष और संकट के क्षण इन पत्रों में अच्छी तरह अभिव्यक्त हुए हैं। आशा है इनका प्रकाशन हिन्दी के इस विरल व्यक्तित्व को सही ढंग से समझने में सहायक होगा।
इस पुस्तक का प्रकाशन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर हुआ था। भारतीय ज्ञानपीठ इस दुर्लभ कृति का ‘पुनर्नवा संस्करण’ नवीन साज-सज्जा के साथ पाठकों को समर्पित करते हुए गौरव का अनुभव कर रहा है।

About Author

शिवप्रसाद सिंह - डॉ. शिवप्रसाद सिंह का जन्म 19 अगस्त, 1928 को बनारस के जलालपुर गाँव में एक ज़मींदार परिवार में हुआ था। 1949 में उदय प्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट तक की शिक्षा ग्रहण कर शिवप्रसाद जी ने 1951 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. और 1953 में हिन्दी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया था। स्वर्ण पदक विजेता डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने एम.ए. में 'कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा' पर लघु शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया। उसकी प्रशंसा राहुल सांकृत्यायन और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की थी। हालाँकि वे द्विवेदी जी के प्रारम्भ से ही प्रिय शिष्यों में थे, किन्तु उसके पश्चात् द्विवेदी जी का विशेष प्यार उन्हें मिलने लगा। द्विवेदी जी के निर्देशन में उन्होंने 'सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य' विषय पर शोध सम्पन्न किया, जो अपने प्रकार का उत्कृष्ट और मौलिक कार्य था। अपने पुश्तैनी ज़मींदारी वैभव की चर्चा वे अक्सर किया करते लेकिन उस वातावरण से असम्पृक्त बिल्कुल पृथक् संस्कारों में उनका विकास हुआ। उनके विकास में उनकी दादी माँ, पिता और माँ का विशेष योगदान रहा, इस बात की चर्चा वे प्रायः करते थे। दादी माँ की अक्षुण्ण स्मृति अन्त तक उनके ज़ेहन में रही और यह उसी का प्रभाव था कि उनकी पहली कहानी भी 'दादी माँ' थी जिससे हिन्दी कहानी को नया आयाम मिला। 'दादी माँ' से नयी कहानी का प्रवर्तन स्वीकार किया गया और यही नहीं, यही वह कहानी थी जिसे पहली आंचलिक कहानी होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। तब तक रेणु का आंचलिकता के क्षेत्र में आविर्भाव नहीं हुआ था। बाद में डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों में आंचलिकता के जो प्रयोग किये वह प्रेमचन्द और रेणु से पृथक् थे। एक प्रकार से दोनों के मध्य का मार्ग था और यही कारण था कि उनकी कहानियाँ पाठकों को अधिक आकर्षित कर सकी थीं। इसे विडम्बना कहा जा सकता है कि जिसकी रचनाओं को साहित्य की नयी धारा के प्रवर्तन का श्रेय मिला हो, उसने किसी भी आन्दोलन से अपने को नहीं जोड़ा। वे स्वतन्त्र एवं अपने ढंग के लेखन में व्यस्त रहे।

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