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Pichhley Panney
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
गुलज़ार
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
गुलज़ार
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹180 ₹179
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In stock
ISBN:
SKU
9789326350068
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
110
पिछले पन्ने –
संस्मरण विधा लेखन की दूसरी विधाओं के बनिस्पत कठिन व दुष्कर विधा है और किन्ही अर्थों दुस्साध्य भी। इसलिए कि लेखन का बीज की जा सकने वाली ‘कल्पना’ के लिए इस विधा में कोई स्पेस नहीं होता। कल्पना वह पानी है जिससे कुम्हार की तरह एक लेखक इतिवृत्तात्मकता की मिट्टी को गूँथकर एक रचना रचता है। इसी अर्थ में इसे एक दुस्साध्य विधा माना जा सकता है।
फिर संस्मरण ही एक ऐसी विधा है जहाँ लेखक की भी मौजूदगी होती है। यहाँ कठिनता यह है कि संस्मरण लेखक के पास ज़बर्दस्त अनुपात बोध होना आवश्यक है। अर्थात् अपने कथ्य में लेखक की मौजूदगी बस उतनी होनी चाहिए जितना दाल में नमक।
लेकिन लेखक अगर गुलज़ार जैसी कद्दावर शख़्सियत का मालिक हो तो इस अनुपात-बोध के गड़बड़ाने का ख़तरा पैदा हो जाना लाज़िमी है। ‘पिछले पन्ने’ के संस्मरणों से गुज़रते हुए बारहाँ हम चौंकते हैं कि गुलज़ार ने बिना अपनी कोई ख़ास मौजूदगी दर्ज किये, बड़ी रवानगी के साथ इन्हें रचा है। पुस्तक में संकलित पोर्ट्रेट्स व मर्सिया हमें दग्ध-विदग्ध करते हैं। बिमल राय, भूषण बनमाली, मीना कुमारी, जगजीत सिंह आदि को यहाँ जिस अपनेपन से याद किया गया है, हम उनके जीवन की उन अँधेरी कन्दराओं में भी झाँक आते हैं जो इनकी शख़्सियत की ऊपरी चमकीली रोशनियों में अब तक कहीं छिपी हुई थीं।
एक निहायत ही ज़रूरी व संग्रहणीय पुस्तक, जहाँ लेखक हमारे समकाल के आकाश में चमकते सितारों को ज़मीन पर उतार लाया है। -कुणाल सिंह
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Description
पिछले पन्ने –
संस्मरण विधा लेखन की दूसरी विधाओं के बनिस्पत कठिन व दुष्कर विधा है और किन्ही अर्थों दुस्साध्य भी। इसलिए कि लेखन का बीज की जा सकने वाली ‘कल्पना’ के लिए इस विधा में कोई स्पेस नहीं होता। कल्पना वह पानी है जिससे कुम्हार की तरह एक लेखक इतिवृत्तात्मकता की मिट्टी को गूँथकर एक रचना रचता है। इसी अर्थ में इसे एक दुस्साध्य विधा माना जा सकता है।
फिर संस्मरण ही एक ऐसी विधा है जहाँ लेखक की भी मौजूदगी होती है। यहाँ कठिनता यह है कि संस्मरण लेखक के पास ज़बर्दस्त अनुपात बोध होना आवश्यक है। अर्थात् अपने कथ्य में लेखक की मौजूदगी बस उतनी होनी चाहिए जितना दाल में नमक।
लेकिन लेखक अगर गुलज़ार जैसी कद्दावर शख़्सियत का मालिक हो तो इस अनुपात-बोध के गड़बड़ाने का ख़तरा पैदा हो जाना लाज़िमी है। ‘पिछले पन्ने’ के संस्मरणों से गुज़रते हुए बारहाँ हम चौंकते हैं कि गुलज़ार ने बिना अपनी कोई ख़ास मौजूदगी दर्ज किये, बड़ी रवानगी के साथ इन्हें रचा है। पुस्तक में संकलित पोर्ट्रेट्स व मर्सिया हमें दग्ध-विदग्ध करते हैं। बिमल राय, भूषण बनमाली, मीना कुमारी, जगजीत सिंह आदि को यहाँ जिस अपनेपन से याद किया गया है, हम उनके जीवन की उन अँधेरी कन्दराओं में भी झाँक आते हैं जो इनकी शख़्सियत की ऊपरी चमकीली रोशनियों में अब तक कहीं छिपी हुई थीं।
एक निहायत ही ज़रूरी व संग्रहणीय पुस्तक, जहाँ लेखक हमारे समकाल के आकाश में चमकते सितारों को ज़मीन पर उतार लाया है। -कुणाल सिंह
About Author
गुलज़ार -
18 अगस्त, 1934 को दीना, पंजाब (अब पाकिस्तान) में जनमे प्रसिद्ध शायर-अफ़साना-निग़ार-सिनेमादाँ गुलज़ार का मूल नाम सम्पूरन सिंह कालरा है। मूलतः उर्दू-हिन्दी में लिखने वाले गुलज़ार ने पंजाबी, ब्रजभाषा, हरियाणवी व मारवाड़ी में भी क़लम चलायी है। कला के क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान के लिए वर्ष 2004 में इन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत किया गया। इससे पूर्व वर्ष 2002 में इन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिल चुका था। सिनेमा के क्षेत्र में इन्हें कई राष्ट्रपति पुरस्कार व फ़िल्मफेयर पुरस्कारों के अतिरिक्त ग्रैमी अवार्ड और ऑस्कर अवार्ड भी मिल चुका है।
'चाँद पुखराज का', 'रात पशमीने की' और 'पन्द्रह पाँच पचहत्तर' इनके कविता संकलन हैं तथा 'रावी पार' (पाकिस्तानी संस्करण में 'दस्तख़त') व ‘धुआँ' कहानी संग्रह।
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