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Jahan Bhi Ho Zara Si Sambhavna

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
प्रदीप जिलवाने
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
प्रदीप जिलवाने
Language:
Hindi
Format:
Hardback

129

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In stock

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10-12 Days

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Book Type

Availiblity

ISBN:
SKU 9788126340279 Category
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Page Extent:
124

जहाँ भी हो जरा-सी सम्भावना –
प्रदीप जलाने की कविताएँ हमारे समय में कथ्य शिल्प और संवेदना का ऐसा पारदर्शी संसार खड़ा करती है जिसमें हम अपने समय का आवेश भी देख सकते हैं और उसके आर-पार भी। प्रदीप को अपने समकालीन समय और समाज की गहरी पहचान है और उसे व्यक्त करने के लिए एक जागरूक और राजनीतिक समझ भी।
प्रदीप की कविताओं में घर-परिवार का संसार बड़े ही अपने रूढ़ रूप में व्यक्त होता है लेकिन इसमें मुक्ति की छटपटाहट साफ़ झलकती है। ‘पगडण्डी से पक्की सड़क’ इस अर्थ में एक बड़ी कविता है। ‘कैलेंडर पर मुस्कुराती हुई लड़की’ के माध्यम से कवि हमारे भीतर गहरे तक पैठ गये बाज़ार और उसकी मंशा को बेनक़ाब करता है। मनुष्य के पाखण्ड, दोमुँहेपन और स्वार्थ को प्रदीप अपनी कविताओं में नये तेवर के साथ व्यक्त करते हैं। खरगोन के परमारकालीन भग्न मन्दिरों पर लिखी कविता में प्रदीप जिन ‘मेटाफर्स’ का प्रयोग करते हैं, वे उनके इतिहासबोध, दृष्टि और रेंज के परिचायक हैं।
प्रदीप अपनी कविताओं के प्रति उतने ही सहज हैं जितने कि अपने समय-समाज के प्रति, लेकिन यह सहजता अपने भीतर ऐसा कुछ ज़रूर सँजोये है जो अन्ततः परिवर्तनकामी है। कविता के भीतर और बाहर प्रतिबद्धता और विचारधारा का अतिरिक्त शोर-शराबा मचाये बग़ैर प्रदीप की ये कविताएँ मनुष्य के पक्ष में खड़ी हुई हैं—सहजता से, मगर दृढ़ता के साथ।

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Description

जहाँ भी हो जरा-सी सम्भावना –
प्रदीप जलाने की कविताएँ हमारे समय में कथ्य शिल्प और संवेदना का ऐसा पारदर्शी संसार खड़ा करती है जिसमें हम अपने समय का आवेश भी देख सकते हैं और उसके आर-पार भी। प्रदीप को अपने समकालीन समय और समाज की गहरी पहचान है और उसे व्यक्त करने के लिए एक जागरूक और राजनीतिक समझ भी।
प्रदीप की कविताओं में घर-परिवार का संसार बड़े ही अपने रूढ़ रूप में व्यक्त होता है लेकिन इसमें मुक्ति की छटपटाहट साफ़ झलकती है। ‘पगडण्डी से पक्की सड़क’ इस अर्थ में एक बड़ी कविता है। ‘कैलेंडर पर मुस्कुराती हुई लड़की’ के माध्यम से कवि हमारे भीतर गहरे तक पैठ गये बाज़ार और उसकी मंशा को बेनक़ाब करता है। मनुष्य के पाखण्ड, दोमुँहेपन और स्वार्थ को प्रदीप अपनी कविताओं में नये तेवर के साथ व्यक्त करते हैं। खरगोन के परमारकालीन भग्न मन्दिरों पर लिखी कविता में प्रदीप जिन ‘मेटाफर्स’ का प्रयोग करते हैं, वे उनके इतिहासबोध, दृष्टि और रेंज के परिचायक हैं।
प्रदीप अपनी कविताओं के प्रति उतने ही सहज हैं जितने कि अपने समय-समाज के प्रति, लेकिन यह सहजता अपने भीतर ऐसा कुछ ज़रूर सँजोये है जो अन्ततः परिवर्तनकामी है। कविता के भीतर और बाहर प्रतिबद्धता और विचारधारा का अतिरिक्त शोर-शराबा मचाये बग़ैर प्रदीप की ये कविताएँ मनुष्य के पक्ष में खड़ी हुई हैं—सहजता से, मगर दृढ़ता के साथ।

About Author

प्रदीप जिलवाने - जन्म: 14 जून, 1978, खरगोन (म.प्र.)। शिक्षा: देवी अहिल्या विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए., पीजीडीसीए। फ़िलहाल म.प्र. ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण में कार्यरत। हिन्दी साहित्य की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित। निरंजन श्रोत्रिय द्वारा सम्पादित 'युवा द्वाद्वश', लीलाधर मंडलोई द्वारा सम्पादित 'स्त्री होकर सवाल करती है...' आदि विभिन्न कविता-संकलनों में कविताएँ शामिल एवं प्रकाशित। स्थानीय और लोकप्रिय पत्रों में सांस्कृतिक एवं समसामयिक विषयों पर आलेख प्रकाशित। ब्लॉग लेखन में सक्रिय। 'जहाँ भी हो जरा-सी सम्भावना' (कविता-संग्रह) के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित।

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