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Atirikt Naheen
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
विनोद कुमार शुक्ल
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
विनोद कुमार शुक्ल
Language:
Hindi
Format:
Paperback
₹299 ₹209
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ISBN:
SKU
9789357751230
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
120
आज़ादी के बाद हिन्दी कविता को जिन कवियों ने अपनी राह चलते एक ख़ास शैली में समृद्ध करने का काम किया, उनमें एक नाम विनोद कुमार शुक्ल का है। अपने कथ्य लिए जैसी भाषा, शिल्प और दृष्टि ईजाद की है इस कवि ने, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
अतिरिक्त नहीं विनोद कुमार शुक्ल का इस जगत् से जो कुछ भी सम्बद्ध, उसकी कविताओं का संग्रह है, उसके अतिरिक्त नहीं। इसलिए इसमें जो लोक है, वह इस तरह जिया हुआ कि व्यक्त में अव्यक्त कुछ नहीं रह जाता, कुछ अगर रह भी जाता है तो वह वेदना के तल पर हमारे भीतर बहुत देर तक ठहरा रहता है- ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था’; या इस तरह कि ‘तन्दूर में बनती हुई रोटी / सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।’
विनोद कुमार शुक्ल शब्दों से खेलने वाले नहीं, उससे आगाह करने वाले कवि हैं, और ऐसा वे इसलिए कर पाते हैं कि घटनाओं को दूर से नहीं, बहुत क़रीब से देखते गुज़रते हैं, तभी कह भी पाते हैं – ‘किसी को काम नहीं मिला के आखिर में हत्या करने का उनको काम मिला।’ और यह कैसी विडम्बना है कि जो कवि कहता है- ‘कभी धर्म और जाति के / राजनैतिक, अराजनैतिक जुलूस से दबकर / धर्मविहीन, जातिविहीन चीख चीखता हूँ’, वही जब भविष्य- सी मरी हुई एक छोटी-सी लड़की को पीछे के दरवाज़े से घर से बचाकर बाहर निकालते हुए देखता है तो कहता है कि ऐसे में ‘मेरी चीख़ अवाक् होती है’ । छीजते काल का यह भार एक कवि का निजी नहीं, बल्कि एक पूरे युग का है जो उसे बेध रहा। लेकिन कवि इस युग में जो भी उथल-पुथल, उसे गहरे जान रहा है और जब गहरे जान रहा तो तमाम आशंकाओं के बीच बहुत देर तक अवाक् नहीं रह सकता, क्योंकि अगर ऐसा करता है तो उसकी मनुष्यता चुक जायेगी। इसलिए वह जिस व्यवस्था में सुदूर जंगल को उजड़ते और आदिवासियों को छाया और भूख के घेरे में बेहोश पड़े देखता है, तब जब बहुतेरे आधुनिकता की तेज़ गति में शामिल, पूछता है ‘कौन डॉक्टर को बुलायेगा / …. प्राथमिक उपचार क्या होगा/ बेहोशी में लगेगा कि अभी सोया हुआ है और उसे सोने दिया जाये बेहोशी में मर जाये तो / कैसे पता चलेगा कि मर गया।’ यह सिर्फ़ एक बेचैनी नहीं, तीक्ष्ण मारकता भी है, जो विचलित कर देती है।
विनोद कुमार शुक्ल के पास जो उम्मीद है, वह जीवन और उसके विस्थापित होने को लेकर अपनी गहन सोच में एक अलग ही दृश्य रचती है- ‘कि सब जगह हो सब जगह के पास / और अकाल, आतंक, दुकाल में अबकी साल / गाँव से एक भी विस्थापित न हो।’ और मुक्ति की जब बानगी रचते हैं तो कैनवस पर क्या रंग बिखरते हैं- ‘शब्दहीनता में किसी भी कविता के पहले मैं मुक्ति को /मुक्तियों में दुहराता हूँ ध्वनिशः / जो झुण्ड में उड़ जाता है।’ और यही कारण है कि कवि यह मानता है- ‘सबके हिस्से का आकाश/पूरा आकाश है।’ इसलिए- ‘कितना बहुत है/ परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं।’
कुल मिलाकर अगर इस संग्रह की वनलाइन को डिफाइन करें तो विनोद कुमार शुक्ल का यह संग्रह अतिरिक्त नहीं एक ऐसे कालयात्री का संग्रह है जिसकी कविताएँ अपने यथार्थ से निरन्तर इस बोध के साथ टकराती रहती हैं कि हम कम-से-कम मनुष्य बने रह सकें, न केवल मनुष्यों के लिए बल्कि इस पूरे जगत् के लिए जिसकी सम्बद्धता से परे कुछ नहीं-न शेष न अवशेष !
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Description
आज़ादी के बाद हिन्दी कविता को जिन कवियों ने अपनी राह चलते एक ख़ास शैली में समृद्ध करने का काम किया, उनमें एक नाम विनोद कुमार शुक्ल का है। अपने कथ्य लिए जैसी भाषा, शिल्प और दृष्टि ईजाद की है इस कवि ने, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
अतिरिक्त नहीं विनोद कुमार शुक्ल का इस जगत् से जो कुछ भी सम्बद्ध, उसकी कविताओं का संग्रह है, उसके अतिरिक्त नहीं। इसलिए इसमें जो लोक है, वह इस तरह जिया हुआ कि व्यक्त में अव्यक्त कुछ नहीं रह जाता, कुछ अगर रह भी जाता है तो वह वेदना के तल पर हमारे भीतर बहुत देर तक ठहरा रहता है- ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था / व्यक्ति को मैं नहीं जानता था / हताशा को जानता था’; या इस तरह कि ‘तन्दूर में बनती हुई रोटी / सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।’
विनोद कुमार शुक्ल शब्दों से खेलने वाले नहीं, उससे आगाह करने वाले कवि हैं, और ऐसा वे इसलिए कर पाते हैं कि घटनाओं को दूर से नहीं, बहुत क़रीब से देखते गुज़रते हैं, तभी कह भी पाते हैं – ‘किसी को काम नहीं मिला के आखिर में हत्या करने का उनको काम मिला।’ और यह कैसी विडम्बना है कि जो कवि कहता है- ‘कभी धर्म और जाति के / राजनैतिक, अराजनैतिक जुलूस से दबकर / धर्मविहीन, जातिविहीन चीख चीखता हूँ’, वही जब भविष्य- सी मरी हुई एक छोटी-सी लड़की को पीछे के दरवाज़े से घर से बचाकर बाहर निकालते हुए देखता है तो कहता है कि ऐसे में ‘मेरी चीख़ अवाक् होती है’ । छीजते काल का यह भार एक कवि का निजी नहीं, बल्कि एक पूरे युग का है जो उसे बेध रहा। लेकिन कवि इस युग में जो भी उथल-पुथल, उसे गहरे जान रहा है और जब गहरे जान रहा तो तमाम आशंकाओं के बीच बहुत देर तक अवाक् नहीं रह सकता, क्योंकि अगर ऐसा करता है तो उसकी मनुष्यता चुक जायेगी। इसलिए वह जिस व्यवस्था में सुदूर जंगल को उजड़ते और आदिवासियों को छाया और भूख के घेरे में बेहोश पड़े देखता है, तब जब बहुतेरे आधुनिकता की तेज़ गति में शामिल, पूछता है ‘कौन डॉक्टर को बुलायेगा / …. प्राथमिक उपचार क्या होगा/ बेहोशी में लगेगा कि अभी सोया हुआ है और उसे सोने दिया जाये बेहोशी में मर जाये तो / कैसे पता चलेगा कि मर गया।’ यह सिर्फ़ एक बेचैनी नहीं, तीक्ष्ण मारकता भी है, जो विचलित कर देती है।
विनोद कुमार शुक्ल के पास जो उम्मीद है, वह जीवन और उसके विस्थापित होने को लेकर अपनी गहन सोच में एक अलग ही दृश्य रचती है- ‘कि सब जगह हो सब जगह के पास / और अकाल, आतंक, दुकाल में अबकी साल / गाँव से एक भी विस्थापित न हो।’ और मुक्ति की जब बानगी रचते हैं तो कैनवस पर क्या रंग बिखरते हैं- ‘शब्दहीनता में किसी भी कविता के पहले मैं मुक्ति को /मुक्तियों में दुहराता हूँ ध्वनिशः / जो झुण्ड में उड़ जाता है।’ और यही कारण है कि कवि यह मानता है- ‘सबके हिस्से का आकाश/पूरा आकाश है।’ इसलिए- ‘कितना बहुत है/ परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं।’
कुल मिलाकर अगर इस संग्रह की वनलाइन को डिफाइन करें तो विनोद कुमार शुक्ल का यह संग्रह अतिरिक्त नहीं एक ऐसे कालयात्री का संग्रह है जिसकी कविताएँ अपने यथार्थ से निरन्तर इस बोध के साथ टकराती रहती हैं कि हम कम-से-कम मनुष्य बने रह सकें, न केवल मनुष्यों के लिए बल्कि इस पूरे जगत् के लिए जिसकी सम्बद्धता से परे कुछ नहीं-न शेष न अवशेष !
About Author
विनोद कुमार शुक्ल का जन्म 1 जनवरी 1937 को राजनांदगाँव, मध्य प्रदेश में हुआ। इनका पहला कविता-संग्रह लगभग जयहिन्द 'पहचान सीरीज़' के अन्तर्गत 1971 में प्रकाशित हुआ था और दूसरा वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह 1981 में इसी संग्रह के लिए 1981 में इन्हें 'रज़ा पुरस्कार' प्राप्त हुआ। इनका पहला उपन्यास नौकर की क़मीज़ 1979 में छपा। 1988 में 'पूर्वग्रह सीरीज़' में इनकी कहानियों का संग्रह पेड़ पर कमरा प्रकाशित हुआ। फिर सब कुछ होना बचा रहेगा कविता-संग्रह 1992 में। इस संग्रह को 1992 में 'रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार' मिला। विनोद कुमार शुक्ल दो वर्ष के लिए 'निराला सृजनपीठ' में जून 1994 से जून 1996 तक अतिथि साहित्यकार रहे। 'निराला सृजनपीठ' में रहते हुए इन्होंने खिलेगा तो देखेंगे तथा दीवार में एक खिड़की रहती थी उपन्यास लिखे । 1996 में ही महाविद्यालय कहानी-संग्रह प्रकाशित। देश-विदेश की कुछ भाषाओं में इनकी कई रचनाओं के अनुवाद हुए। 1997 में इन्हें 'दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान' प्राप्त हुआ। 1998 में मेरियोला आफ्रीदी द्वारा इतालवी में अनुवादित एक कविता-पुस्तक का इटली में प्रकाशन, और इतालवी में ही पेड़ पर कमरा का भी अनुवाद। मणि कौल द्वारा 1999 में नौकर की क़मीज़ पर फिल्म का निर्माण । दीवार में एक खिड़की रहती थी के लिए 1999 का 'साहित्य अकादेमी पुरस्कार' । 2 मार्च 2023 को इन्हें प्रतिष्ठित 'पेन नाबोकोव पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। ये इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर रहे तथा 1996 में सेवानिवृत्त हुए। विनोद कुमार शुक्ल रायपुर, मध्य प्रदेश में निवास करते हैं।
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