Patkatha Aur Anya Kahaniyan 158

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Patrakarita : Itihas Aur Prashna

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
कृष्णा बिहारी मिश्र
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
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कृष्णा बिहारी मिश्र
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Hindi
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SKU 9789350720851 Category
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152

“हिन्दी पत्रकारिता के आरम्भ के युग में हमारे पत्रकारों की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज नहीं है। साधारण रूप से तो यह बात कही जा ही सकती है, अपवाद खोजने चलें तो भी यही पाएँगे कि आज का एक भी पत्रकार या सम्पादक वह सम्मान नहीं पाता जो कि पचास-पचहत्तर वर्ष पहले के अधिकतर पत्रकारों को प्राप्त था । … आज के सम्पादक-पत्रकार अगर इस अन्तर पर विचार करें तो स्वीकार करने को बाध्य होंगे कि वे न केवल कम सम्मान पाते हैं बल्कि कम सम्मान के पात्र हैं-या कदाचित् सम्मान के पात्र बिल्कुल नहीं हैं, जो पाते हैं वह पात्रता से नहीं, इतर कारणों से।
… अप्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह है कि उसके पास मानदंड नहीं है । यहीं हरिश्चन्द्र कालीन सम्पादक-पत्रकार- या उतनी दूर न जाएँ तो महावीर प्रसाद द्विवेदी का समकालीन भी हम से अच्छा था। उसके पास मानदंड थे, नैतिक आधार थे और स्पष्ट नैतिक उद्देश्य भी। उनमें से कोई ऐसे भी थे जिनके विचारों को हम दकियानूसी कहते, तो भी उनका सम्मान करने को हम बाध्य होते थे क्योंकि स्पष्ट नैतिक आधार पाकर वे उन पर अमल भी करते थे- वे चरित्रवान थे। आज – विचार – क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही हैं और सम्मान के पात्र नहीं हैं।”

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Description

“हिन्दी पत्रकारिता के आरम्भ के युग में हमारे पत्रकारों की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज नहीं है। साधारण रूप से तो यह बात कही जा ही सकती है, अपवाद खोजने चलें तो भी यही पाएँगे कि आज का एक भी पत्रकार या सम्पादक वह सम्मान नहीं पाता जो कि पचास-पचहत्तर वर्ष पहले के अधिकतर पत्रकारों को प्राप्त था । … आज के सम्पादक-पत्रकार अगर इस अन्तर पर विचार करें तो स्वीकार करने को बाध्य होंगे कि वे न केवल कम सम्मान पाते हैं बल्कि कम सम्मान के पात्र हैं-या कदाचित् सम्मान के पात्र बिल्कुल नहीं हैं, जो पाते हैं वह पात्रता से नहीं, इतर कारणों से।
… अप्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह है कि उसके पास मानदंड नहीं है । यहीं हरिश्चन्द्र कालीन सम्पादक-पत्रकार- या उतनी दूर न जाएँ तो महावीर प्रसाद द्विवेदी का समकालीन भी हम से अच्छा था। उसके पास मानदंड थे, नैतिक आधार थे और स्पष्ट नैतिक उद्देश्य भी। उनमें से कोई ऐसे भी थे जिनके विचारों को हम दकियानूसी कहते, तो भी उनका सम्मान करने को हम बाध्य होते थे क्योंकि स्पष्ट नैतिक आधार पाकर वे उन पर अमल भी करते थे- वे चरित्रवान थे। आज – विचार – क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही हैं और सम्मान के पात्र नहीं हैं।”

About Author

कृष्णबिहारी मिश्र जन्म : 1 जुलाई 1936, बलिहार, बलिया, उत्तर प्रदेश । शिक्षा : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1956 में एम.ए. (हिन्दी)। 1965 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता पर केन्द्रित शोध-प्रबन्ध पर डॉक्टरेट (पीएच.डी.) की उपाधि । 1996 में बंगवासी मार्निंग कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से सेवा-निवृत्त । प्रकाशित कृतियाँ वैचारिक कृतियाँ : हिन्दी पत्रकारिता : जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण-भूमि, हिन्दी पत्रकारिता : राजस्थानी आयोजन की कृती भूमिका, गणेश शंकर विद्यार्थी, हिन्दी पत्रकारिता : जातीय अस्मिता की जागरण-भूमिका, हिन्दी साहित्य की इतिहास- कथा, आस्था और मूल्यों का संक्रमण, आलोक पन्था । ललित निबन्ध-संग्रह : बेहया का जंगल, मकान उठते हैं, आँगन की तलाश, हिन्दी साहित्य : बंगीय भूमिका। सम्पादन- अनुवाद : श्रेष्ठ ललित निबन्ध (12 भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ ललित निबन्ध), भगवान बुद्ध (अंग्रेजी से अनूदित), नव-ग्रह (नयी कविता का संकलन), सम्बुद्धि (राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय विचार-गोष्ठियों में पठित आलेख का संकलन) । सम्पादन : त्रैमासिक पत्रिका 'समिधा' (पद्मधर त्रिपाठी के साथ), और भोजपुरी की मासिक पत्रिका 'भोजपुरी माटी' ।

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