Akath Kahani

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
प्रेमकुमार मणि
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
प्रेमकुमार मणि
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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महान से महान विचार और व्यक्ति के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए भी मैं उनके विचारों का रूढ़ वाहक नहीं बन सका। बुद्ध, मार्क्स, कबीर मेरे प्रिय रहे हैं, आज भी हैं। लेकिन उनकी बातों को, उनके विचारों को, मैं अपने विवेक की रोशनी में खँगाल कर ही स्वीकारता हूँ। उनकी तमाम बातें आज के ज़माने में ठीक ही हों, यह ज़रूरी नहीं है। बुद्ध के समय का समाज आज नहीं है, मार्क्स के समय का अर्थशास्त्र आज नहीं है। उसमें परिवर्तन आये हैं। अनेक चिन्तक-विश्लेषक इस बीच हुए। सबको लेते हुए ही हम उनके विचारों को देखेंगे, फिर आज की समस्याओं के बीच उनकी प्रासंगिकता तलाश करेंगे। लेकिन कुछ लोग सनातनी मिज़ाज के होते हैं- सनातनी बौद्ध, सनातनी कबीरपन्थी या सनातनी मार्क्सवादी। ऐसे लोगों से मेरा रास्ता अलग हो जाता है। मैं किसी रूढ़ रास्ते पर नहीं चल सका। अनेक लोग इसे मेरा भटकाव मानते हैं। लेखक-चिन्तक प्रेमकुमार मणि की यह आत्मकथा उत्तर भारतीय किसान परिवार में जन्मे-पले-बढ़े एक व्यक्ति के विकास की दिलचस्प-दास्तान तो है ही, आज़ादी के बाद इस क्षेत्र में आये बदलावों का विश्वसनीय दस्तावेज़ भी है। मणि कथाकार- उपन्यासकार के साथ प्रतिबद्ध सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे हैं, जिनके विचारों ने अनेक बार विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं और आन्दोलनों को दिशा दी है। आत्मकथा में मणि कथावाचक भर बने रहते हैं। इस तटस्थता के कारण यह उनकी से अधिक, उनके समय की कहानी बन जाती है। 1960 के दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक के लगभग 50 साल लम्बे काल-खण्ड की एक ऐसी कहानी, जो राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल से भरी है और जिसमें इस दौर के साहित्यिक जगत की हलचलें भी उझकती हैं। इन वर्णनों में जीवन व जगत के प्रति मणि के नज़रिये में प्रौढ़ता और आत्मीयता का सहज समावेश है। उन्होंने नेहरू युग के पश्चात् हिन्दी-समाज में आये बदलावों को गहराई से अनुभव किया है और अपनी भरपूर ज्ञानात्मक संवेदना के साथ साझा किया है। यहाँ जयप्रकाश आन्दोलन है, तो नक्सलवादी आन्दोलन भी; मण्डलवादी उथल-पुथल है, तो भगवा अंगड़ाई भी। यह केवल मणि की कहानी नहीं, उस पूरे दौर का एक जीवन्त और सम्यक दस्तावेज़ है, जिसके सामाजिक पहलू अलग से रेखांकित किये जाने योग्य हैं। उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक-जगत के इतिहास को समझने के लिए यह एक ज़रूरी किताब है। वस्तुतः यह केवल आत्मकथा नहीं, बल्कि उससे कुछ अधिक है।

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महान से महान विचार और व्यक्ति के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए भी मैं उनके विचारों का रूढ़ वाहक नहीं बन सका। बुद्ध, मार्क्स, कबीर मेरे प्रिय रहे हैं, आज भी हैं। लेकिन उनकी बातों को, उनके विचारों को, मैं अपने विवेक की रोशनी में खँगाल कर ही स्वीकारता हूँ। उनकी तमाम बातें आज के ज़माने में ठीक ही हों, यह ज़रूरी नहीं है। बुद्ध के समय का समाज आज नहीं है, मार्क्स के समय का अर्थशास्त्र आज नहीं है। उसमें परिवर्तन आये हैं। अनेक चिन्तक-विश्लेषक इस बीच हुए। सबको लेते हुए ही हम उनके विचारों को देखेंगे, फिर आज की समस्याओं के बीच उनकी प्रासंगिकता तलाश करेंगे। लेकिन कुछ लोग सनातनी मिज़ाज के होते हैं- सनातनी बौद्ध, सनातनी कबीरपन्थी या सनातनी मार्क्सवादी। ऐसे लोगों से मेरा रास्ता अलग हो जाता है। मैं किसी रूढ़ रास्ते पर नहीं चल सका। अनेक लोग इसे मेरा भटकाव मानते हैं। लेखक-चिन्तक प्रेमकुमार मणि की यह आत्मकथा उत्तर भारतीय किसान परिवार में जन्मे-पले-बढ़े एक व्यक्ति के विकास की दिलचस्प-दास्तान तो है ही, आज़ादी के बाद इस क्षेत्र में आये बदलावों का विश्वसनीय दस्तावेज़ भी है। मणि कथाकार- उपन्यासकार के साथ प्रतिबद्ध सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे हैं, जिनके विचारों ने अनेक बार विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक संस्थाओं और आन्दोलनों को दिशा दी है। आत्मकथा में मणि कथावाचक भर बने रहते हैं। इस तटस्थता के कारण यह उनकी से अधिक, उनके समय की कहानी बन जाती है। 1960 के दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक के लगभग 50 साल लम्बे काल-खण्ड की एक ऐसी कहानी, जो राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल से भरी है और जिसमें इस दौर के साहित्यिक जगत की हलचलें भी उझकती हैं। इन वर्णनों में जीवन व जगत के प्रति मणि के नज़रिये में प्रौढ़ता और आत्मीयता का सहज समावेश है। उन्होंने नेहरू युग के पश्चात् हिन्दी-समाज में आये बदलावों को गहराई से अनुभव किया है और अपनी भरपूर ज्ञानात्मक संवेदना के साथ साझा किया है। यहाँ जयप्रकाश आन्दोलन है, तो नक्सलवादी आन्दोलन भी; मण्डलवादी उथल-पुथल है, तो भगवा अंगड़ाई भी। यह केवल मणि की कहानी नहीं, उस पूरे दौर का एक जीवन्त और सम्यक दस्तावेज़ है, जिसके सामाजिक पहलू अलग से रेखांकित किये जाने योग्य हैं। उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक-जगत के इतिहास को समझने के लिए यह एक ज़रूरी किताब है। वस्तुतः यह केवल आत्मकथा नहीं, बल्कि उससे कुछ अधिक है।

About Author

प्रेमकुमार मणि - बिहार के किसान पृष्ठभूमि के एक स्वतन्त्रता सेनानी पिता और शिक्षिका माँ के घर 25 जुलाई 1953 को जन्मे मणि ने विज्ञान विषयों के साथ स्नातक किया और फिर नवनालन्दा महाविहार में भिक्षु जगदीश काश्यप के सान्निध्य में रह कर बौद्धधर्म दर्शन की अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त की। छात्र जीवन में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े, कुछ समय तक सरकारी नौकरी की और छोड़ी, राजनीतिक आन्दोलनों और सक्रियताओं से जुड़े, कथाकार, उपन्यासकार और प्रतिनिधि लेखक के रूप में पहचान बनाई और कुछ पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। निरन्तर समसामयिक विषयों पर भी लिखते रहे। पाँच कहानी संग्रह, एक उपन्यास और लेखों के पाँच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं एवं अनेक कहानियों के अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रांसिसी, उर्दू, तेलगु, बांग्ला, गुजराती और मराठी आदि भाषाओं में हो चुके हैं। लेखन के साथ वह अपनी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के लिए भी जाने जाते हैं।

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