Hindi Ka Paryavarniya Sahitya

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
सम्पादक - प्रभाकरन हेब्बार इल्लत
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
Author:
सम्पादक - प्रभाकरन हेब्बार इल्लत
Language:
Hindi
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Hardback

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200

हिन्दी का पर्यावरणीय साहित्य –
आज का ज़माना यह जान चुका है कि बिना प्रकृति के इस भूतल में मानव का मात्र नहीं, प्रकृति के सम्पूर्ण जीव-रूपों का अतिजीवन आगे निस्सन्देह असम्भव है। प्रकृति से एकदम अलग होकर मानव के अस्तित्व की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि वह स्वयं प्रकृति का दूसरा रूप है। प्रदूषित, संसाधनहीन, निर्जीव प्रकृति में मानव का चैन से रहना सिर्फ़ एक सपना है। जयप्रकाश कर्दम जैसे समकालीन कवि इस चिन्ता को हमारे सामने रखते हुए कहते हैं कि ‘मृत्यु सारे ग्रहों में है, पर जीवन की रंगमयता केवल इस भूमि में मात्र बरकरार है।’ अतएव समकालीन संकट की घड़ी में उभरनेवाला ज्वलन्त सवाल यह है कि हम मृत्यु का वरण करें या जीवन का। इस बात को इस भाँति भी व्यक्त किया जा सकता है कि आगामी पीढ़ियाँ सुख-शान्ति से रहें या न रहें। इससे लगता है कि पर्यावरणीय साहित्य का मूलभाव सबको निगलने के लिए तत्पर खड़ी मृत्यु का नितान्त निरोध-विरोध है। पर्यावरणीय संवाद के काल में रेचल कर्सन का नामोल्लेख किये बिना हम आगे नहीं जा सकते हैं। 1962 में आपकी अमर रचना ‘साईलेंट स्प्रिंग’ का प्रकाशन हुआ था। उसमें पूँजीवाद और तज्जन्य औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप विकसित जीवन परिस्थितियों का हवाला देते हुए आपका कहना यह है कि ‘इस पृथ्वी की सारी चीजों पर मृत्यु की परछाई छायी हुई है।’ इस सावधानी से ऊर्जा ग्रहण कर विश्वभर के प्रकृति प्रेमी उदबुद्ध हो उठे। कर्सन की चिन्ता भूगोल के नक्शे को बदलने में सफल हुई है। आपके द्वारा प्रसारित चेतना से प्रेरणा ग्रहण कर पर्यावरणीय आन्दोलन उभरे, साहित्य रचा गया, संस्थाएँ खड़ी की गयीं, नवाचार निर्मित हुए, राजनीतिक दलों की स्थापना हुई, संविधान तक पकृत्योन्मुख होता गया। प्रकृति के साथ सर्जनात्मक व द्वैतहीन सम्बन्ध की माँग करने वाले पर्यावरणीय साहित्य का अध्ययन करना समय की माँग है। आजकल एक विशिष्ट विमर्श का रूप धारण कर पर्यावरण विमर्श मानव समाज के ‘सामान्य बोध’ को निर्मित करने में योगदान दे रहा है। आशा है कि इससे मनुष्य की वैचारिकता में, अभिवृत्तियों में आमूलचूल परिवर्तन हो। इस अन्दाज़ में पर्यावरण साहित्य मानव की समूची वर्तमान संस्कृति के विमर्श का रूप धारण करता है। परिवर्तन की लहरें इस भाँति उठ रही हैं कि आज का मानव उसी भाँति प्रकृति/पर्यावरण को चाहता है, जैसे मरते जाने वाला आदमी ज़िन्दगी को वापस चाहता है।

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Description

हिन्दी का पर्यावरणीय साहित्य –
आज का ज़माना यह जान चुका है कि बिना प्रकृति के इस भूतल में मानव का मात्र नहीं, प्रकृति के सम्पूर्ण जीव-रूपों का अतिजीवन आगे निस्सन्देह असम्भव है। प्रकृति से एकदम अलग होकर मानव के अस्तित्व की परिकल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि वह स्वयं प्रकृति का दूसरा रूप है। प्रदूषित, संसाधनहीन, निर्जीव प्रकृति में मानव का चैन से रहना सिर्फ़ एक सपना है। जयप्रकाश कर्दम जैसे समकालीन कवि इस चिन्ता को हमारे सामने रखते हुए कहते हैं कि ‘मृत्यु सारे ग्रहों में है, पर जीवन की रंगमयता केवल इस भूमि में मात्र बरकरार है।’ अतएव समकालीन संकट की घड़ी में उभरनेवाला ज्वलन्त सवाल यह है कि हम मृत्यु का वरण करें या जीवन का। इस बात को इस भाँति भी व्यक्त किया जा सकता है कि आगामी पीढ़ियाँ सुख-शान्ति से रहें या न रहें। इससे लगता है कि पर्यावरणीय साहित्य का मूलभाव सबको निगलने के लिए तत्पर खड़ी मृत्यु का नितान्त निरोध-विरोध है। पर्यावरणीय संवाद के काल में रेचल कर्सन का नामोल्लेख किये बिना हम आगे नहीं जा सकते हैं। 1962 में आपकी अमर रचना ‘साईलेंट स्प्रिंग’ का प्रकाशन हुआ था। उसमें पूँजीवाद और तज्जन्य औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप विकसित जीवन परिस्थितियों का हवाला देते हुए आपका कहना यह है कि ‘इस पृथ्वी की सारी चीजों पर मृत्यु की परछाई छायी हुई है।’ इस सावधानी से ऊर्जा ग्रहण कर विश्वभर के प्रकृति प्रेमी उदबुद्ध हो उठे। कर्सन की चिन्ता भूगोल के नक्शे को बदलने में सफल हुई है। आपके द्वारा प्रसारित चेतना से प्रेरणा ग्रहण कर पर्यावरणीय आन्दोलन उभरे, साहित्य रचा गया, संस्थाएँ खड़ी की गयीं, नवाचार निर्मित हुए, राजनीतिक दलों की स्थापना हुई, संविधान तक पकृत्योन्मुख होता गया। प्रकृति के साथ सर्जनात्मक व द्वैतहीन सम्बन्ध की माँग करने वाले पर्यावरणीय साहित्य का अध्ययन करना समय की माँग है। आजकल एक विशिष्ट विमर्श का रूप धारण कर पर्यावरण विमर्श मानव समाज के ‘सामान्य बोध’ को निर्मित करने में योगदान दे रहा है। आशा है कि इससे मनुष्य की वैचारिकता में, अभिवृत्तियों में आमूलचूल परिवर्तन हो। इस अन्दाज़ में पर्यावरण साहित्य मानव की समूची वर्तमान संस्कृति के विमर्श का रूप धारण करता है। परिवर्तन की लहरें इस भाँति उठ रही हैं कि आज का मानव उसी भाँति प्रकृति/पर्यावरण को चाहता है, जैसे मरते जाने वाला आदमी ज़िन्दगी को वापस चाहता है।

About Author

प्रभाकरन हेब्बार इल्लत जन्म : केरल के कण्णूर जिले के पाणप्पुपा गाँव में। शैक्षणिक योग्यताएं : एम.ए. (हिन्दी), एम.ए. (अंग्रेज़ी), एम.ए. (भाषाविज्ञान), एम.ए. (अनुवाद अध्ययन), बी.एड., एम.फिल., पीएच. डी., पी.जी.डी.टी.एस., पी.जी. एन.एल.पी., यूजीसी नेट, स्लेट। प्रकाशित रचनाएँ : 1. निराला के काव्य निर्माण में वैदिक संस्कृति की भूमिका, 2. नारायणगुरु की यात्रा (पेरुंवडवम श्रीधरन के मलयालम 'नारायणम' का हिन्दी अनुवाद), 3. गंगा (के.पी. सुधीरा के मलयालम उपन्यास 'गंगा' का हिन्दी अनुवाद), 4. Rajaravi Varma : The Colossus of Indian Painting, 5. राजभाषा हिन्दी : विविध आयाम, 6. सिद्धार्थ (हेरमन हेस्से के 'सिद्धार्थ' उपन्यास का हिन्दी अनुवाद), 7. संस्कृति भाषा साहित्य, 8. नवत्युत्तर हिन्दी कविता की नूतन प्रवृत्तियाँ, 9. रामविलास शर्मा का अवदान, 10. मानवाधिकार और समकालीन हिन्दी कविता, 11. भाषा एवं साहित्य : विविध परिदृश्य, 12. आधुनिक हिन्दी कविता से साक्षात्कार, 13. पर्यावरण और समकालीन हिन्दी साहित्य,14. मानवाधिकार की राजनीति। पुरस्कार : 1. उत्तम शोध ग्रन्थ के लिए केरल हिन्दी साहित्य अकादमी का पुरस्कार (2001), 2. अनुवाद के लिए राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पुरस्कार (2008), 3. हिन्दीतर लेखक हिन्दी पुरस्कार, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, भारत सरकार (2013), 4. वालकृष्ण गोइन्का अनुवाद पुरस्कार (2015), 5. डॉ. सुनीताबाई आलोचना पुरस्कार (2020 ) । अनुसंधान : यूजीसी की दो कनिष्ठ परियोजनाएँ पूरी कीं, यूजीसी का रिसर्च पुरस्कार (2014), पोस्ट डॉक्टरल फेलो- केरल सरकार। सदस्यता : कण्णूर विश्वविद्यालय, कण्णूर एवं कालडी श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कालड़ी के बोर्ड ऑफ स्टडीज़ का सदस्य। रुचि : कविता, आलोचना, भाषाविज्ञान, अनुवाद । सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कुसाट, कोच्चिन, केरल-682022 स्थायी पता : पी.ओ. पाणप्पुपा, एम.एम. बाज़ार, कण्णूर जिला, केरल-670306 ई-मेल : drhebbarillath@gmail.com मो. : 9146661250, 9447661250

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