Ramchandra Shukla Sanchyita

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
सम्पादक - रामचन्द्र तिवारी
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani Prakashan
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सम्पादक - रामचन्द्र तिवारी
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Hindi
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“प्रस्तुत संचयन में आचार्य प्रवर के विशेषतः उन्हीं निबन्धों को शामिल किया गया है, जो न केवल मौलिक और श्रेष्ठ हैं, वरन् आचार्य प्रवर के काव्य-चिन्तन की आधार भूमि भी प्रस्तुत करते हैं। यह दूसरी बात है कि आचार्य शुक्ल विचारात्मक निबन्धों में चुस्त भाषा के भीतर समासशैली में विचारों की कसी हुई जिस गृढ़-गुफित अर्थ-परम्परा के कायल थे उसकी पूर्ति भी इन निबन्धों से हो जाती है।
शुक्ल-पूर्व-युग के समीक्षक (मिश्रबन्धु) जिस समय देव और बिहारी की सापेक्षिक उत्कृष्टता के प्रश्न से जूझ रहे थे और हिन्दी के नौ श्रेष्ठ कवियों के चयन में उलझे हुए थे, उस समय आचार्य रामचंद्र शुक्ल कवि-कर्म को ‘हृदय की मुक्ति की साधना के लिए किए जाने वाले शब्द-विधान’ के रूप में विश्लेषित कर रहे थे। साहित्य के इतिहास के नाम पर जिस समय वृत्त-संग्रह को पूर्णता दी जा रही थी, उस समय आचार्य शुक्ल उन्नीसवीं शती के योरोपीय इतिहासदर्शन को पचाकर हिन्दी साहित्य के इतिहास को एक ठोस दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहे थे। जिस समय कविता की भाषा के सन्दर्भ में कुछ शास्त्र-विहित गुणों की चर्चा करके सन्तोष कर लिया जा रहा था, उस समय आचार्य शुक्ल उसमें मूर्तिमत्ता, बिंबविधान, संश्लिष्ट-चित्रण, प्रतीक-विधान और लक्षणा-शक्ति के विकास पर विचार कर रहे थे। यही नहीं, सन् 1907 ई. में ही अपनी भाषा पर विचार करते हुए ‘बने-बनाए समासों’, ‘स्थिर विशेषणों’ और ‘नियत उपमाओं के भीतर बँधकर भाषा को अलंकृत करने की प्रवृत्ति को वे जाति की मानसिक अवनति का चिह्न घोषित कर चुके थे। जिस समय काव्यतत्व-विवेचन के क्रम में ‘कल्पना’ की चर्चा शुरू भी नहीं हुई थी, उस समय आचार्य शुक्ल बर्कले द्वारा प्रतिपादित ‘परम कल्पना’ के अध्यात्मदर्शन और उसके आधार पर कवि ब्लेक द्वारा रचित कल्पना के नित्य रहस्यलोक की अवैज्ञानिकता, प्रकृति और कल्पना के प्रत्यक्ष सम्बन्ध तथा विभाव-विधान एवं अप्रस्तुत योजना में कल्पना की अनिवार्य भूमिका का विश्लेषण कर रहे थे। जिस समय काव्यशास्त्र के नाम पर रीति-ग्रन्थों की परम्परा में ‘अलंकार मंजूषा लिखी जा रही थी, उस समय आचार्य शुक्ल भारतीय काव्य सम्प्रदायों का अनुशीलन करके ‘रस’ की मनोवैज्ञानिकता के विवेचन में प्रवृत्त थे और लोक-मंगल के सन्दर्भ में उसकी नवी व्याख्या दे रहे थे तात्पर्य यह है कि चाहे काव्य के स्वरूप विवेचन का क्षेत्र हो, चाहे इतिहास निर्माण का, आचार्य शुक्ल का साहित्यिक व्यक्तित्व अपने युग के परिवेश का अतिक्रमण करके एक आलोक स्तम्भ के रूप में प्रदीप्त होता हुआ दिखाई पड़ता है।”

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“प्रस्तुत संचयन में आचार्य प्रवर के विशेषतः उन्हीं निबन्धों को शामिल किया गया है, जो न केवल मौलिक और श्रेष्ठ हैं, वरन् आचार्य प्रवर के काव्य-चिन्तन की आधार भूमि भी प्रस्तुत करते हैं। यह दूसरी बात है कि आचार्य शुक्ल विचारात्मक निबन्धों में चुस्त भाषा के भीतर समासशैली में विचारों की कसी हुई जिस गृढ़-गुफित अर्थ-परम्परा के कायल थे उसकी पूर्ति भी इन निबन्धों से हो जाती है।
शुक्ल-पूर्व-युग के समीक्षक (मिश्रबन्धु) जिस समय देव और बिहारी की सापेक्षिक उत्कृष्टता के प्रश्न से जूझ रहे थे और हिन्दी के नौ श्रेष्ठ कवियों के चयन में उलझे हुए थे, उस समय आचार्य रामचंद्र शुक्ल कवि-कर्म को ‘हृदय की मुक्ति की साधना के लिए किए जाने वाले शब्द-विधान’ के रूप में विश्लेषित कर रहे थे। साहित्य के इतिहास के नाम पर जिस समय वृत्त-संग्रह को पूर्णता दी जा रही थी, उस समय आचार्य शुक्ल उन्नीसवीं शती के योरोपीय इतिहासदर्शन को पचाकर हिन्दी साहित्य के इतिहास को एक ठोस दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रदान कर रहे थे। जिस समय कविता की भाषा के सन्दर्भ में कुछ शास्त्र-विहित गुणों की चर्चा करके सन्तोष कर लिया जा रहा था, उस समय आचार्य शुक्ल उसमें मूर्तिमत्ता, बिंबविधान, संश्लिष्ट-चित्रण, प्रतीक-विधान और लक्षणा-शक्ति के विकास पर विचार कर रहे थे। यही नहीं, सन् 1907 ई. में ही अपनी भाषा पर विचार करते हुए ‘बने-बनाए समासों’, ‘स्थिर विशेषणों’ और ‘नियत उपमाओं के भीतर बँधकर भाषा को अलंकृत करने की प्रवृत्ति को वे जाति की मानसिक अवनति का चिह्न घोषित कर चुके थे। जिस समय काव्यतत्व-विवेचन के क्रम में ‘कल्पना’ की चर्चा शुरू भी नहीं हुई थी, उस समय आचार्य शुक्ल बर्कले द्वारा प्रतिपादित ‘परम कल्पना’ के अध्यात्मदर्शन और उसके आधार पर कवि ब्लेक द्वारा रचित कल्पना के नित्य रहस्यलोक की अवैज्ञानिकता, प्रकृति और कल्पना के प्रत्यक्ष सम्बन्ध तथा विभाव-विधान एवं अप्रस्तुत योजना में कल्पना की अनिवार्य भूमिका का विश्लेषण कर रहे थे। जिस समय काव्यशास्त्र के नाम पर रीति-ग्रन्थों की परम्परा में ‘अलंकार मंजूषा लिखी जा रही थी, उस समय आचार्य शुक्ल भारतीय काव्य सम्प्रदायों का अनुशीलन करके ‘रस’ की मनोवैज्ञानिकता के विवेचन में प्रवृत्त थे और लोक-मंगल के सन्दर्भ में उसकी नवी व्याख्या दे रहे थे तात्पर्य यह है कि चाहे काव्य के स्वरूप विवेचन का क्षेत्र हो, चाहे इतिहास निर्माण का, आचार्य शुक्ल का साहित्यिक व्यक्तित्व अपने युग के परिवेश का अतिक्रमण करके एक आलोक स्तम्भ के रूप में प्रदीप्त होता हुआ दिखाई पड़ता है।”

About Author

"डॉ. रामचन्द्र तिवारी जन्म : 1924 ई., बनारस जिले के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में। शिक्षा: हाईस्कूल, हरिश्चन्द्र हाई स्कूल बनारस से इण्टर, लखनऊ के कान्यकुब्ज कालेज से, बी.ए., एम.ए., पीएच. डी., लखनऊ विश्वविद्यालय से। अध्यापन 1952 ई. से गोरखपुर के महाराणा प्रताप कालेज में नियुक्ति । 1958 ई. से गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में नियुक्ति। 1979 ई. में गोरखपुर विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग में प्रोफेसर पद पर नियुक्ति । जून 1984 में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से अवकाश ग्रहण | कृतियाँ : कविवर लेखराज गंगाभरण तथा अन्य कृतियाँ (अप्रकाशित), शिवनारायणी सम्प्रदाय और उसका साहित्य ( शोध-प्रबन्ध, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत), रीतिकालीन हिन्दी कविता और सेनापति (उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत), हिन्दी का गद्य साहित्य (उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत), मध्ययुगीन काव्य-साधना, साहित्य का मूल्यांकन (जजमेंट इन लिटरेचर का अनुवाद), नाथ योग एक परिचय (ऐन इण्ट्रोडक्शन टु नाथ योग का अनुवाद), आधुनिक कवि और काव्य (सम्पादित), काव्यधारा (सम्पादित), निबन्ध नीहारिका (सम्पादित), तजकिरा-ए-शुअरा - ए- हिन्दी मौलवी करीमुद्दीन द्वारा लिखित हिन्दी और उर्दू के इतिहास का सम्पादित रूप, कबीर मीमांसा (हिन्दी संस्थान उत्तर प्रदेश, द्वारा विशेष पुरस्कार प्राप्त), आलोचक का दायित्व, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (आलोचना), आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (आलोचना कोश) ।"

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