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Kalam Ko Teer Hone Do
Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
रमणिका गुप्ता
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
रमणिका गुप्ता
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹595 ₹417
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In stock
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1-4 Days
In stock
ISBN:
SKU
9789352292769
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
304
हिन्दी पट्टी के आदिवासी समाज, विशेष रूप से झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के राजनीतिक संयों पर तो थोड़ा ध्यान दिया गया है, लेकिन उनकी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा, सादगी और करुणा को सामने लाने का उपक्रम प्रायः नहीं हुआ है। इधर हिन्दी के कतिपय कवियों ने जरूर कुछ कविताएं लिखी हैं लेकिन उनमें स कुछ सूचनाओं और घटनाओं को दर्ज भर किया गया है। उन सूचनाओं को जब कवि ही अपने जीवनानुभव का हिस्सा नहीं बना पाते, तो भला पाठकों की अनुभूति में वे क्या प्रवाहित होंगी। दरअसल, प्रकृतिविहीन नपी-तुली ज़िन्दगी जीने वाला तथाकथित सभ्य समाज आदिवासियों की महान सांस्कृतिक विरासत को समझ भी नहीं सकता।
इससे अलग, आदिवासी समाज के संघर्ष और करुणा की गाथाएँ उनकी आदिवासी भाषाओं में तो दर्ज हैं ही, इधर कुछ आदिवासी कवियों ने भी हिन्दी में लिखने की पहल की है, जो स्वागत योग्य है। इसकी शुरुआत तो काफी पहले हो गयी थी, लेकिन पहली बार 1980 के दशक में रामदयाल मुंडा के कविता-संग्रह के प्रकाशन के साथ उस महान सांस्कृतिक विरासत को हिन्दी कविता के माध्यम से व्यक्त करने का उपक्रम सामने आया। बाद में सन् 2004 में रमणिका फाउंडेशन ने पहले-पहल सन्ताली कवि निर्मला पुतुल की कविताओं के हिन्दी अनुवाद का द्विभाषी संग्रह ‘अपने घर की तलाश में प्रकाशित किया। उसके बाद ही आदिवासी लेखन को लेकर हिन्दी समाज गम्भीर हुआ और यह परम्परा लगातार समृद्ध होती गयी। अनुज लुगुन की कविताओं ने तथाकथित मुख्यधारा में आदिवासी कविता को पहचान दिलाने में एक अहम भूमिका निभाई।
रमणिकाजी आदिवासियों के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक संघयों के साथ-साथ उनकी साहित्यिक गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से शामिल होती रही हैं। अपनी पत्रिका के माध्यम से भी उन्होंने कई आदिवासी कवियों व कथाकारों को सामने लाने का काम किया है। उन्होंने आदिवासी भाषाओं की कविताओं, कहानियों, लोक-कथाओं, मिथकों व शौर्यगाथाओं के अनुवाद भी प्रकाशित कराये हैं। अब वे पहली बार, हिन्दी में लिखने वाले झारखंड के 17 कवियों की चुनी हुई कविताओं का यह संग्रह सामने ला रही हैं, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। हिन्दी कविता का लोकतन्त्र दलितों, स्त्रियों आदि के साथ-साथ इन आदिवासी कवियों को शामिल करने पर ही बनता है। यह विमर्श सबसे नया है लेकिन उसकी ज़मीन बहुत मज़बूत है।
– मदन कश्यप
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Description
हिन्दी पट्टी के आदिवासी समाज, विशेष रूप से झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के राजनीतिक संयों पर तो थोड़ा ध्यान दिया गया है, लेकिन उनकी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा, सादगी और करुणा को सामने लाने का उपक्रम प्रायः नहीं हुआ है। इधर हिन्दी के कतिपय कवियों ने जरूर कुछ कविताएं लिखी हैं लेकिन उनमें स कुछ सूचनाओं और घटनाओं को दर्ज भर किया गया है। उन सूचनाओं को जब कवि ही अपने जीवनानुभव का हिस्सा नहीं बना पाते, तो भला पाठकों की अनुभूति में वे क्या प्रवाहित होंगी। दरअसल, प्रकृतिविहीन नपी-तुली ज़िन्दगी जीने वाला तथाकथित सभ्य समाज आदिवासियों की महान सांस्कृतिक विरासत को समझ भी नहीं सकता।
इससे अलग, आदिवासी समाज के संघर्ष और करुणा की गाथाएँ उनकी आदिवासी भाषाओं में तो दर्ज हैं ही, इधर कुछ आदिवासी कवियों ने भी हिन्दी में लिखने की पहल की है, जो स्वागत योग्य है। इसकी शुरुआत तो काफी पहले हो गयी थी, लेकिन पहली बार 1980 के दशक में रामदयाल मुंडा के कविता-संग्रह के प्रकाशन के साथ उस महान सांस्कृतिक विरासत को हिन्दी कविता के माध्यम से व्यक्त करने का उपक्रम सामने आया। बाद में सन् 2004 में रमणिका फाउंडेशन ने पहले-पहल सन्ताली कवि निर्मला पुतुल की कविताओं के हिन्दी अनुवाद का द्विभाषी संग्रह ‘अपने घर की तलाश में प्रकाशित किया। उसके बाद ही आदिवासी लेखन को लेकर हिन्दी समाज गम्भीर हुआ और यह परम्परा लगातार समृद्ध होती गयी। अनुज लुगुन की कविताओं ने तथाकथित मुख्यधारा में आदिवासी कविता को पहचान दिलाने में एक अहम भूमिका निभाई।
रमणिकाजी आदिवासियों के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक संघयों के साथ-साथ उनकी साहित्यिक गतिविधियों में भी सक्रिय रूप से शामिल होती रही हैं। अपनी पत्रिका के माध्यम से भी उन्होंने कई आदिवासी कवियों व कथाकारों को सामने लाने का काम किया है। उन्होंने आदिवासी भाषाओं की कविताओं, कहानियों, लोक-कथाओं, मिथकों व शौर्यगाथाओं के अनुवाद भी प्रकाशित कराये हैं। अब वे पहली बार, हिन्दी में लिखने वाले झारखंड के 17 कवियों की चुनी हुई कविताओं का यह संग्रह सामने ला रही हैं, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। हिन्दी कविता का लोकतन्त्र दलितों, स्त्रियों आदि के साथ-साथ इन आदिवासी कवियों को शामिल करने पर ही बनता है। यह विमर्श सबसे नया है लेकिन उसकी ज़मीन बहुत मज़बूत है।
– मदन कश्यप
About Author
रमणिका गुप्ता
जन्म : 22 अप्रैल, 1930, सुनाम (पंजाब)
शिक्षा : एम.ए., बी.एड.
बिहार झारखंड की पूर्व विधायक एवं विधान परिषद् की पूर्व सदस्य। कई गैर-सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक कार्यक्रमों में सहभागिता । आदिवासी, दलित महिलाओं व वंचितों के लिए कार्यरत । कई देशों की यात्राएँ। विभिन्न सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित ।
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित कृतियाँ : निज घरे परदेसी, सांप्रदायिकता के बदलते चेहरे (स्त्री-विमर्श) । आदिवासी स्वर : नयी शताब्दी (सम्पादन) ।
इसके अलावा छह काव्य-संग्रह, चार कहानी-संग्रह एवं तैंतीस विभिन्न भाषाओं के साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं के अतिरिक्त 'आदिवासी शौर्य एवं विद्रोह' (झारखंड), 'आदिवासी सृजन मिथक एवं अन्य लोककथाएँ' (झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात और अंडमान-निकोबार) का संकलन-सम्पादन ।
अनुवाद : शरणकुमार लिंबाले की पुस्तक 'दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र' का मराठी से हिन्दी में अनुवाद। इनके उपन्यास 'मौसी' का अनुवाद तेलुगु में 'पिन्नी' नाम से और पंजाबी में 'मासी' नाम से हो चुका है। ज़हीर गाजीपुरी द्वारा में अनूदित इनका कविता-संकलन 'कैसे करोगे तकसीम तवारीख को प्रकाशित। इनकी कविताओं का पंजाबी अनुवाद बलवरी चन्द्र लांगोवाल ने किया जो 'बागी बोल' नाम से प्रकाशित हो चुका है। आदिवासी, दलित एवं स्त्री मुद्दों पर कुल 38 पुस्तकें सम्पादित।
सम्प्रति: सन् 1985 से 'युद्धरत आम आदमी' (मासिक हिन्दी पत्रिका) का सम्पादन ।
सम्पर्क: ए-221, ग्राउंड फ्लोर, डिफेंस कॉलोनी, नयी दिल्ली -110024
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