Pattharon Ka Geet

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, आनंद प्रकाश द्वारा सम्पादित
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, आनंद प्रकाश द्वारा सम्पादित
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Hindi
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100

पत्थरों का गीत –
कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह का पहला कविता-संग्रह ‘इतिहास का संवाद’ सन 1980 में छपा। उनकी कविताएँ चालीस के दशक में प्रकाशित होने लगी थीं और सन साठ तक वे एक महत्त्वूपर्ण कवि तथा विचारक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे।
कुमारेन्द्र का सरोकार पूरी उम्र आजाद हिन्दुस्तान के जीवन में पनपते-बढ़ते मामूली स्थानों या व्यक्तियों से रहा। उनका विश्वास था कि बाकी देशों की भाँति इस महादेश के आधार निर्माण में, हिन्दुस्तान की सम्पदा के उत्पादन में वास्तविक योगदान सामान्य कामगार जनता का रहा है। वे सोचते थे कि श्रम का लाभ यादि जनता को नहीं मिलता तो इसे संवेदनशील लेखकों तथा विचारकों के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए। रचना से सम्बन्धित कुमारेन्द्र की समझ अकादमिक कवियों, ‘पूरी तैयारी से लिखने वाले कवियों की समझ से अलग थी। कुमारेन्द्र सौन्दर्य चेतना के कायल थे तथा ऐन्द्रिकता के सम्प्रेषण और विचार के कलागत अनुशासन को महत्व देते थे। लेकिन ये चीज़ें उनकी कविता को बाँधती नहीं थीं। इसका कारण यह था कि वे सबसे अधिक पसन्द उस जीवन प्रवाह को करते थे जो एक संवेदना – भूमि के भीतर रजिस्टर या दर्ज होता है। कुमारेन्द्र के जैसी ‘छन्दविहीनता’ पचास या साठ के दशक में शायद ही कहीं मिले। वे ज़िद करके प्रोज़ के, गद्य के कवि बने। इसका उनके कवि रूप से तो सम्बन्ध था ही, व्यक्तिगत तेवर और मन्तव्य से भी था। काव्य-परम्परा और व्यक्ति के टकराव की इस अर्थवत्ता को अभी परिभाषित होना है।

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Description

पत्थरों का गीत –
कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह का पहला कविता-संग्रह ‘इतिहास का संवाद’ सन 1980 में छपा। उनकी कविताएँ चालीस के दशक में प्रकाशित होने लगी थीं और सन साठ तक वे एक महत्त्वूपर्ण कवि तथा विचारक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे।
कुमारेन्द्र का सरोकार पूरी उम्र आजाद हिन्दुस्तान के जीवन में पनपते-बढ़ते मामूली स्थानों या व्यक्तियों से रहा। उनका विश्वास था कि बाकी देशों की भाँति इस महादेश के आधार निर्माण में, हिन्दुस्तान की सम्पदा के उत्पादन में वास्तविक योगदान सामान्य कामगार जनता का रहा है। वे सोचते थे कि श्रम का लाभ यादि जनता को नहीं मिलता तो इसे संवेदनशील लेखकों तथा विचारकों के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए। रचना से सम्बन्धित कुमारेन्द्र की समझ अकादमिक कवियों, ‘पूरी तैयारी से लिखने वाले कवियों की समझ से अलग थी। कुमारेन्द्र सौन्दर्य चेतना के कायल थे तथा ऐन्द्रिकता के सम्प्रेषण और विचार के कलागत अनुशासन को महत्व देते थे। लेकिन ये चीज़ें उनकी कविता को बाँधती नहीं थीं। इसका कारण यह था कि वे सबसे अधिक पसन्द उस जीवन प्रवाह को करते थे जो एक संवेदना – भूमि के भीतर रजिस्टर या दर्ज होता है। कुमारेन्द्र के जैसी ‘छन्दविहीनता’ पचास या साठ के दशक में शायद ही कहीं मिले। वे ज़िद करके प्रोज़ के, गद्य के कवि बने। इसका उनके कवि रूप से तो सम्बन्ध था ही, व्यक्तिगत तेवर और मन्तव्य से भी था। काव्य-परम्परा और व्यक्ति के टकराव की इस अर्थवत्ता को अभी परिभाषित होना है।

About Author

कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह - जन्म : चौगाई, भोजपुर, बिहार में 4 जनवरी, 1928। शिक्षा और जीवन : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम. ए. हिन्दी। प्रारम्भिक दौर में बम्बई के एक कॉलेज में और तदुपरान्त कलकत्ता के एक स्कूल में अध्यापन। 1969 से 1990 तक अनुग्रह नारायण कालिज, पटना में हिन्दी के व्याख्याता रहे और वहीं से अवकाश प्राप्त किया। सामाजिक हलचलों और साहित्यिक आंदोलनों में प्रभावी शिरकत की। हिन्दी की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताएँ, विश्लेषणात्मक निबन्ध, वैचारिक लेख, डायरी, संस्मरण, आदि प्रकाशित। जीवन पर्यन्त गम्भीर चर्चा के केन्द्र में रहे। 1992 में हुई मृत्यु के बाद हिन्दी की कई पत्रिकाओं ने कुमारेन्द्र पर विशेषांक प्रकाशित किये। प्रकाशित कृतियाँ : 'इतिहास का संवाद' (कविता संग्रह); 'काव्य भाषा का वाम पक्ष' (आलोचना); 'बबुरीवन' (कविता-संग्रह)। मृत्यु : दिल्ली में 24 जून, 1992।

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