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Nirvasit (PB)
Publisher:
Lokbharti
| Author:
ILACHANDRA JOSHI
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Lokbharti
Author:
ILACHANDRA JOSHI
Language:
Hindi
Format:
Hardback
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ISBN:
SKU
9789352211319
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
प्रस्तुत उपन्यास की कथा का आरम्भ उस समय से होता है जब द्वितीय महायुद्ध अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था और उसकी छाया भारत में पूरी तरह से नहीं पड़ी थी। तब मध्यवर्गीय समाज के जीवन से रोमान्स की रंगीनी एकदम उठ नहीं गई थी। इसमें सन्देह नहीं कि उस रंगीनी को युद्धजनित प्रतिक्रिया की विभीषिका का अस्पष्ट आभास किंचित् म्लान करने लगा था, पर अभी उस म्लान छायाभास ने सघन रूप धारण नहीं किया था।
एक ओर मध्यवर्गीय समाज अभी तक उसी युग की भावनाओं, संस्कारों और मान्यताओं से बँधा हुआ था जब प्रथम महायुद्धजनित प्रतिक्रियाओं की पूर्ण समाप्ति के बाद प्रतिदिन के जीवन की साधारण सुख-सुविधाओं में एक प्रकार की ऊपरी स्थिरता-सी मालूम होने लगी थी, और यद्यपि समाज के भीतर-ही-भीतर स्वयं उसके अज्ञात में—आग निरन्तर धधकती चली जा रही थी।
कहानी जब द्वितीय स्थिति पर पहुँचती है, तब एक ओर सन् बयालीस के अगस्त आन्दोलन का दमनचक्रपूर्ण सघन वातावरण भारतीय आकाश को भाराक्रान्त किए हुए था। दूसरी ओर महायुद्ध की प्रतिक्रिया का परिपूर्ण प्रकोप पूरे प्रवेग से देश की जनता के ऊपर टूट पड़ा था। केवल पूँजीपति और ज़मींदा़र वर्ग को छोड़कर और सभी वर्ग इन दो पाटों के बीच में बुरी तरह पिसने लगे थे।
उपन्यास की तीसरी और अन्तिम स्थिति तब आती है जब द्वितीय महायुद्ध तो समाप्त हो जाता है, किन्तु समाप्ति के साथ ही अणु-बम के आविष्कार द्वारा तृतीय महायुद्ध के छायापात की सूचना भी दे जाता है।
उपन्यास के नायक का जीवन उन तीनों परिस्थितियों से होकर गुज़रता है। उन तीनों परिस्थितियों में, अपने संघर्षमय जीवन के बीच में, वह किन-किन और किस प्रकार के पात्रों तथा यात्रियों के सम्पर्क में आता है, जीवन के किन जटिल-जाल-संकुल पथों से होकर विचरण करता है, किन-किन घटना-चक्रों का सामना उसे करना पड़ता है और उनकी क्या-क्या और कैसी प्रतिक्रियाएँ उसके भीतर होती हैं, इन्हीं सब बातों का चित्रण करने का प्रयत्न इस उपन्यास में किया गया है।
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Description
प्रस्तुत उपन्यास की कथा का आरम्भ उस समय से होता है जब द्वितीय महायुद्ध अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था और उसकी छाया भारत में पूरी तरह से नहीं पड़ी थी। तब मध्यवर्गीय समाज के जीवन से रोमान्स की रंगीनी एकदम उठ नहीं गई थी। इसमें सन्देह नहीं कि उस रंगीनी को युद्धजनित प्रतिक्रिया की विभीषिका का अस्पष्ट आभास किंचित् म्लान करने लगा था, पर अभी उस म्लान छायाभास ने सघन रूप धारण नहीं किया था।
एक ओर मध्यवर्गीय समाज अभी तक उसी युग की भावनाओं, संस्कारों और मान्यताओं से बँधा हुआ था जब प्रथम महायुद्धजनित प्रतिक्रियाओं की पूर्ण समाप्ति के बाद प्रतिदिन के जीवन की साधारण सुख-सुविधाओं में एक प्रकार की ऊपरी स्थिरता-सी मालूम होने लगी थी, और यद्यपि समाज के भीतर-ही-भीतर स्वयं उसके अज्ञात में—आग निरन्तर धधकती चली जा रही थी।
कहानी जब द्वितीय स्थिति पर पहुँचती है, तब एक ओर सन् बयालीस के अगस्त आन्दोलन का दमनचक्रपूर्ण सघन वातावरण भारतीय आकाश को भाराक्रान्त किए हुए था। दूसरी ओर महायुद्ध की प्रतिक्रिया का परिपूर्ण प्रकोप पूरे प्रवेग से देश की जनता के ऊपर टूट पड़ा था। केवल पूँजीपति और ज़मींदा़र वर्ग को छोड़कर और सभी वर्ग इन दो पाटों के बीच में बुरी तरह पिसने लगे थे।
उपन्यास की तीसरी और अन्तिम स्थिति तब आती है जब द्वितीय महायुद्ध तो समाप्त हो जाता है, किन्तु समाप्ति के साथ ही अणु-बम के आविष्कार द्वारा तृतीय महायुद्ध के छायापात की सूचना भी दे जाता है।
उपन्यास के नायक का जीवन उन तीनों परिस्थितियों से होकर गुज़रता है। उन तीनों परिस्थितियों में, अपने संघर्षमय जीवन के बीच में, वह किन-किन और किस प्रकार के पात्रों तथा यात्रियों के सम्पर्क में आता है, जीवन के किन जटिल-जाल-संकुल पथों से होकर विचरण करता है, किन-किन घटना-चक्रों का सामना उसे करना पड़ता है और उनकी क्या-क्या और कैसी प्रतिक्रियाएँ उसके भीतर होती हैं, इन्हीं सब बातों का चित्रण करने का प्रयत्न इस उपन्यास में किया गया है।
About Author
इलाचन्द्र जोशी
जन्म : 13 दिसम्बर, 1902; अल्मोड़ा के एक प्रतिष्ठित मध्यवर्गीय परिवार में।
सन् 1921 में शरद बाबू से इनकी भेंट हुई। 'चाँद' के सहयोगी सम्पादक रहे और सन् 1929 में ‘सुधा’ का सम्पादन किया। ‘कोलकाता समाचार’, ‘चाँद', ‘विश्वचाणी', ‘सुधा’, ‘सम्मेलन-पत्रिका’, ‘संगम', ‘धर्मयुद्ध' और ‘साहित्यकार' जैसी पत्रिकाओं के सम्पादन से भी जुड़े रहे। पहला उपन्यास जो 1927 में लिखा गया था, सन् 1929 में प्रकाशित हुआ।
प्रमुख कृतियाँ : उपन्यास—‘लज्जा’, ‘संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’, ‘प्रेत और छाया’, ‘निर्वासित’, ‘मुक्तिपथ’, ‘सुबह के भूले’, ‘जिप्सी’, ‘जहाज़ का पंछी’, ‘भूत का भविष्य’, ‘ऋतुचक्र’; कहानी—‘धूपरेखा’, ‘दीवाली और होली’, ‘रोमांटिक छाया’, ‘आहुति’, ‘खँडहर की आत्माएँ’, ‘डायरी के नीरस पृष्ठ’, ‘कँटीले फूल लजीले काँटे’; समालोचना तथा निबन्ध—‘साहित्य सर्जना’, ‘विवेचना’, ‘विश्लेषण’, ‘साहित्य चिंतन’, ‘शरतचन्द्र-व्यक्ति और कलाकार’, ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर’, ‘देखा-परखा’।
सम्मान : उत्तर प्रदेश शासन द्वारा ‘ऋतुचक्र' उपन्यास पर ‘प्रेमचन्द पुरस्कार’, ‘विशिष्ट पुरस्कार’ सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित। सन् 1979 में साहित्य वाचस्पति की उपाधि।
विशिष्ट पुरस्कार उत्तर प्रदेश शासन द्वारा 1976-77, साहित्य वाचस्पति की उपाधि 1979 ईं.।
निधन : सन् 1982
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