Uchakka (PB)

Publisher:
RADHA
| Author:
Laxman Gaiakwad, Tr. Suryanarayan Ransubhe
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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RADHA
Author:
Laxman Gaiakwad, Tr. Suryanarayan Ransubhe
Language:
Hindi
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Hardback

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यह आत्मकथा बिना आत्मदया या किसी क़िस्म की आत्मश्लाघा के हमारे सामाजिक यथार्थ को सामने लाती है। दलित लेखकों की परम्परागत कथा से अलग, यह ऐसा आत्म–वृत्तान्त है जो समाज के छोटे–छोटे अपराधों पर परवरिश पाते एक समूह का प्रतिनिधित्व करता है
‘‘मैं तब मराठी की पहली कक्षा में ही पढ़ रहा था। तब जिस किसी पुस्तक का पहला पृष्ठ खोलता उस पर लिखा होता, ‘भारत मेरा देश है। सारे भारतीय मेरे बन्धु हैं। मुझे इस देश की परम्परा का अभिमान है।’ मुझे लगता है कि अगर यह सब कुछ सही–सही है तो फिर हमें बिना अपराध के पीटा क्यों जाता है? माँ को पुलिस क्यों पीटती है? उसकी साड़ी खींचकर यह क्यों कहती है ‘चल साड़ी खोल के दिखा, तूने चोरी की है न!’ मुझे लगता है अगर भारत मेरा देश है, तो फिर हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जाता है? अगर सभी भारतीय भाई–भाई हैं, तो फिर हम जैसे भाइयों को काम क्यों नहीं दिया जाता? हमें खेती के लिए ज़मीन क्यों नहीं दी जाती? रहने के लिए हमें अच्छा मकान क्यों नहीं मिलता? अगर हम सब भाई हैं, तो मेरे भाइयों को, घर का खर्चा चलाने के लिए या पुलिस को रिश्वत देने के लिए, चोरी क्यों करनी पड़ती है?’’
ऐसे कई प्रश्न हैं, जिन्हें यूँ ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता। बिना किसी दुराव–छिपाव के लेखक सहजतापूर्वक बारी–बारी से कई सवालों से जूझता है। बेबाक और अहम साहित्यिक कृति होने के साथ–साथ यह एक महत्त्वपूर्ण व संग्रहणीय दस्तावेज़ है।

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Description

यह आत्मकथा बिना आत्मदया या किसी क़िस्म की आत्मश्लाघा के हमारे सामाजिक यथार्थ को सामने लाती है। दलित लेखकों की परम्परागत कथा से अलग, यह ऐसा आत्म–वृत्तान्त है जो समाज के छोटे–छोटे अपराधों पर परवरिश पाते एक समूह का प्रतिनिधित्व करता है
‘‘मैं तब मराठी की पहली कक्षा में ही पढ़ रहा था। तब जिस किसी पुस्तक का पहला पृष्ठ खोलता उस पर लिखा होता, ‘भारत मेरा देश है। सारे भारतीय मेरे बन्धु हैं। मुझे इस देश की परम्परा का अभिमान है।’ मुझे लगता है कि अगर यह सब कुछ सही–सही है तो फिर हमें बिना अपराध के पीटा क्यों जाता है? माँ को पुलिस क्यों पीटती है? उसकी साड़ी खींचकर यह क्यों कहती है ‘चल साड़ी खोल के दिखा, तूने चोरी की है न!’ मुझे लगता है अगर भारत मेरा देश है, तो फिर हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जाता है? अगर सभी भारतीय भाई–भाई हैं, तो फिर हम जैसे भाइयों को काम क्यों नहीं दिया जाता? हमें खेती के लिए ज़मीन क्यों नहीं दी जाती? रहने के लिए हमें अच्छा मकान क्यों नहीं मिलता? अगर हम सब भाई हैं, तो मेरे भाइयों को, घर का खर्चा चलाने के लिए या पुलिस को रिश्वत देने के लिए, चोरी क्यों करनी पड़ती है?’’
ऐसे कई प्रश्न हैं, जिन्हें यूँ ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता। बिना किसी दुराव–छिपाव के लेखक सहजतापूर्वक बारी–बारी से कई सवालों से जूझता है। बेबाक और अहम साहित्यिक कृति होने के साथ–साथ यह एक महत्त्वपूर्ण व संग्रहणीय दस्तावेज़ है।

About Author

लक्ष्मण गायकवाड़

23 जुलाई, 1952 को धनेगाँव, लातूर, महाराष्ट्र में जन्म।

‘उचल्या’ पुस्तक का अनुवाद हिन्दी, अंग्रेज़ी, कन्नड़, तेलुगू, उर्दू, फ़्रेंच, बांग्ला भाषाओं में। इनकी ‘वडार वेदना’ कृति भी काफ़ी चर्चित है। ये केन्द्रीय साहित्य अकादेमी के भूतपूर्व जूनियर मेम्बर, सोसायटी फ़ॉर कम्यूनल हार्मनी, दिल्ली के भूतपूर्व जूनियर मेम्बर और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य रह चुके हैं।

श्री गायकवाड़ ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘समता पुरस्कार’, ‘संजीवनी पुरस्कार’, ‘महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार’, ‘सार्क’ राष्ट्रों द्वारा दिए जानेवाले ‘अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार’ से सम्मानित किए जा चुके हैं।

शोषित, पीड़ित समुदायों में सामाजिक परिवर्तन लानेवाले और विमुक्त, घुमन्तू जमातों के लोगों को न्याय तथा उनके अधिकार दिलाने के लिए ये 1978 से कार्यरत हैं। ये महाराष्ट्र में ‘विमुक्त भटके (घुमन्तू) संघर्ष महासंघ’ के व्यवस्थापकीय अध्यक्ष भी हैं। कामगार, खेत मज़दूर, होटल बॉयज, स्त्री-मुक्ति आदि आन्दोलनों में इनकी सक्रिय सहभागी रही है। 1984 में निकली विमुक्त घुमन्तू लोगों की शोधयात्रा के संयोजक भी रहे हैं।

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