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Vaikalpik Bharat Ki Talash (HB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Ravibhushan
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Ravibhushan
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹695 ₹487
Save: 30%
In stock
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3-5 days
In stock
ISBN:
SKU
9789387462434
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
आज़ादी के बाद हमने एक नया भारत बनाने की योजनाएँ बनाई थीं। एक शोषणविहीन, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत जहाँ न कोई किसी की दया का मोहताज हो, न किसी को किसी से भय हो, न धर्म के नाम पर लोग मरें, न जाति के नाम पर कोई समाज की मुख्यधारा से बाहर रहे। लेकिन ऐसा हो न सका।
कुल मिलाकर हम उतना आगे नहीं बढ़ सके, जितना अपेक्षित था। हममें से अनेक आज भी उस आज़ादी को तरस रहे जो उनके पुरखों ने गांधी, भगत सिंह की मौजूदगी में सोची थी। लोग बीमार हैं और अस्पतालों में उनके लिए जगह नहीं है, वो जिन्हें अपने उद्धारक प्रतिनिधियों के रूप में चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं, वो अगले दिन उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं, जिस व्यवस्था के दायरे में वे अपने घर-परिवार के सपने बुनते हैं, वह एक दिन सिर्फ़ अपने लिए काम करती नज़र आती है।
वैकल्पिक भारत कोई दिमाग़ी शग़ल नहीं है। ज़रूरत है। जिन्हें अपने अलावा किसी भी और की चिन्ता है, वे सब इस ज़रूरत को महसूस करते हैं। रविभूषण सजग आलोचक और सरोकारों के साथ जीनेवाले विचारक हैं। इस पुस्तक में उनके उन आलेखों को शामिल किया गया है जो उन्होंने पिछले दिनों एक चिन्तनशील नागरिक और बौद्धिक के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए लिखे हैं।
पुस्तक का विषय-क्रम देश के समय को एक-एक चरण में पार करते हुए आज तक आता है। दादाभाई नौरोजी, विवेकानन्द से शुरू करते हुए वे आज़ादी, बाद की सत्ता और समाज के चरित्र पर आते हैं और अन्त राष्ट्रवाद पर करते हैं। वही राष्ट्रवाद जो आज उन तमाम ताक़तों का मुखौटा बना हुआ है जिन्हें अपने अलावा किसी भी और का बोलना पसन्द नहीं। जो हिंसा को अपने अस्तित्व का पर्याय मानते हैं, और जिन्हें जाने क्यों लगने लगा है कि यह देश सिर्फ़ उनका है।
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Description
आज़ादी के बाद हमने एक नया भारत बनाने की योजनाएँ बनाई थीं। एक शोषणविहीन, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत जहाँ न कोई किसी की दया का मोहताज हो, न किसी को किसी से भय हो, न धर्म के नाम पर लोग मरें, न जाति के नाम पर कोई समाज की मुख्यधारा से बाहर रहे। लेकिन ऐसा हो न सका।
कुल मिलाकर हम उतना आगे नहीं बढ़ सके, जितना अपेक्षित था। हममें से अनेक आज भी उस आज़ादी को तरस रहे जो उनके पुरखों ने गांधी, भगत सिंह की मौजूदगी में सोची थी। लोग बीमार हैं और अस्पतालों में उनके लिए जगह नहीं है, वो जिन्हें अपने उद्धारक प्रतिनिधियों के रूप में चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं, वो अगले दिन उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं, जिस व्यवस्था के दायरे में वे अपने घर-परिवार के सपने बुनते हैं, वह एक दिन सिर्फ़ अपने लिए काम करती नज़र आती है।
वैकल्पिक भारत कोई दिमाग़ी शग़ल नहीं है। ज़रूरत है। जिन्हें अपने अलावा किसी भी और की चिन्ता है, वे सब इस ज़रूरत को महसूस करते हैं। रविभूषण सजग आलोचक और सरोकारों के साथ जीनेवाले विचारक हैं। इस पुस्तक में उनके उन आलेखों को शामिल किया गया है जो उन्होंने पिछले दिनों एक चिन्तनशील नागरिक और बौद्धिक के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए लिखे हैं।
पुस्तक का विषय-क्रम देश के समय को एक-एक चरण में पार करते हुए आज तक आता है। दादाभाई नौरोजी, विवेकानन्द से शुरू करते हुए वे आज़ादी, बाद की सत्ता और समाज के चरित्र पर आते हैं और अन्त राष्ट्रवाद पर करते हैं। वही राष्ट्रवाद जो आज उन तमाम ताक़तों का मुखौटा बना हुआ है जिन्हें अपने अलावा किसी भी और का बोलना पसन्द नहीं। जो हिंसा को अपने अस्तित्व का पर्याय मानते हैं, और जिन्हें जाने क्यों लगने लगा है कि यह देश सिर्फ़ उनका है।
About Author
रविभूषण
बिहार प्रान्त के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में दिसम्बर 1946 में जन्म। जन्मतिथि सम्भवत: 17 दिसम्बर। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के समीप के एक विद्यालय में। कॉलेज की आरम्भिक शिक्षा समस्तीपुर कॉलेज में। बिहार विश्वविद्यालय से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा साहित्य में एम.ए. (1967-68)। ऑनर्स एवं एम.ए. में ‘स्वर्ण पदक’ प्राप्त। भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ.बच्चन सिंह के निर्देशन में ‘छायावाद में रंग-तत्त्व’ पर पीएच.डी. (1985)।
नवम्बर 1968 से अध्यापन-कार्य। जुलाई 1971 से बिहार लोक सेवा आयोग की संस्तुति पर भागलपुर विश्वविद्यालय में नियुक्त। टी.एन.बी. कॉलेज, भागलपुर में पद स्थापित। भागलपुर विश्वविद्यालय में ही रीडर, प्रोफ़ेसर बने। अक्टूबर 1991 से अक्टूबर 2008 तक राँची विश्वविद्यालय के दो कॉलेजों और हिन्दी विभाग में पदस्थापित। अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
आलोचनात्मक लेखन की शुरुआत 1971-72 के दो निबन्धों—‘कामायनी’ में ‘नील वर्ण का प्रयोग’ और ‘नवगीत : कितनी हार, कितनी जीत’ से। 1979 से सांस्कृतिक मोर्चे पर अधिक सक्रिय। पहले ‘नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा’ और बाद में ‘जन संस्कृति मंच’ से सम्बद्ध। फ़िलहाल ‘जसम’ के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष।
दैनिक समाचार-पत्र ‘प्रभात ख़बर’ में पिछले कई वर्षों से विविध विषयों पर निरन्तर लेखन। लगभग 20 वर्ष से इस पत्र के स्तम्भ लेखक और वार्षिक दीपावली अंक के अतिथि सम्पादक।
ई-मेल : ravibhushan1408@gmail.com
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