Narvanar (PB)

Publisher:
RADHA
| Author:
Sharankumar Limbale, Tr. Nishikant Thakaar
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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RADHA
Author:
Sharankumar Limbale, Tr. Nishikant Thakaar
Language:
Hindi
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Hardback

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‘नरवानर’ 1956 से 1996 तक के समय पर आधारित यह उपन्यास दरअसल आत्मचिन्तन है। दलित-विमर्श के संवेदनशील विस्फोटक सन्दर्भ का एक साहित्यिक विश्लेषण। लेखक के अनुसार इस आत्मचिंतन या विश्लेषण के मूल में हैं कुछ स्मृतियाँ, कुछ बहसें, कुछ समाचार, कुछ साहित्य-पाठ, समाज की गतिविधियाँ और उनसे उत्पन्न प्रतिक्रियाएँ, बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार और व्यभिचार की ओर उन्मुख दैनंदिन नैतिकता, दंगे और हिंसा, राजनीति का अपराधीकरण, अपराधियों को प्राप्त प्रतिष्ठा, राष्ट्रीय नेतृत्व का भ्रष्टाचार, बढ़ती हुई बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और आबादी।
लेकिन मराठी में ‘उपल्या’ नाम से प्रकाशित और चर्चित इस उपन्यास की केन्द्रीय चिन्ता समकालीन दलित आन्दोलन है। पहले अध्याय में एक सनातनी ब्राह्मण परिवार के दलितीकरण का चित्रण है तो तीसरे अध्याय में एक ब्राह्मण परिवार की ही बेटी एक दलित से विवाह करके नया जीवन शुरू करती है। बाकी दो अध्यायों में दलित आन्दोलन के उभार, संघर्ष और विखंडन पर दृष्टिपात किया गया है।
कहना न होगा कि हिन्दी और मराठी में समान रूप से लोकप्रिय लेखक शरणकुमार लिंबाले का यह उपन्यास समकालीन दलित विमर्श के सन्दर्भ में एक ज़रूरी पुस्तक है।

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Description

‘नरवानर’ 1956 से 1996 तक के समय पर आधारित यह उपन्यास दरअसल आत्मचिन्तन है। दलित-विमर्श के संवेदनशील विस्फोटक सन्दर्भ का एक साहित्यिक विश्लेषण। लेखक के अनुसार इस आत्मचिंतन या विश्लेषण के मूल में हैं कुछ स्मृतियाँ, कुछ बहसें, कुछ समाचार, कुछ साहित्य-पाठ, समाज की गतिविधियाँ और उनसे उत्पन्न प्रतिक्रियाएँ, बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार और व्यभिचार की ओर उन्मुख दैनंदिन नैतिकता, दंगे और हिंसा, राजनीति का अपराधीकरण, अपराधियों को प्राप्त प्रतिष्ठा, राष्ट्रीय नेतृत्व का भ्रष्टाचार, बढ़ती हुई बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और आबादी।
लेकिन मराठी में ‘उपल्या’ नाम से प्रकाशित और चर्चित इस उपन्यास की केन्द्रीय चिन्ता समकालीन दलित आन्दोलन है। पहले अध्याय में एक सनातनी ब्राह्मण परिवार के दलितीकरण का चित्रण है तो तीसरे अध्याय में एक ब्राह्मण परिवार की ही बेटी एक दलित से विवाह करके नया जीवन शुरू करती है। बाकी दो अध्यायों में दलित आन्दोलन के उभार, संघर्ष और विखंडन पर दृष्टिपात किया गया है।
कहना न होगा कि हिन्दी और मराठी में समान रूप से लोकप्रिय लेखक शरणकुमार लिंबाले का यह उपन्यास समकालीन दलित विमर्श के सन्दर्भ में एक ज़रूरी पुस्तक है।

About Author

शरणकुमार लिंबाले

जन्म : 1 जून, 1956; महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले के हन्नूर गाँव में।

शिक्षा : शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर से मराठी भाषा में एम.ए.। इसके बाद यहीं से ‘मराठी दलित साहित्य और अमेरिकन ब्लैक साहित्य : एक तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर पीएच.डी.।

यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र ओपन यूनिवर्सिटी (नासिक) में प्रोफ़ेसर एवं निदेशक-पद से सेवानिवृत्त।

प्रमुख कृतियाँ : मराठी भाषा में दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित। हिन्दी में ‘अक्करमाशी’ (आत्मकथा); ‘नरवानर’, ‘हिन्‍दू’, ‘बहुजन’, ‘सनातन’ (उपन्‍यास); ‘देवता आदमी’, ‘छुआछूत’, ‘दलित ब्राह्मण’ (कहानी-संग्रह); ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ (आलोचना) आदि प्रकाशित एवं चर्चित‍।

सम्‍मान : ‘सरस्वती सम्मान’ सहित कई सम्‍मानों से सम्‍मानित।

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