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Parchhaiyan (HB)

Publisher:
Lokbharti
| Author:
n/a
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Lokbharti
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n/a
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Hindi
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Hardback

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SKU 9789352211548 Category
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‘परछाइयाँ’ आत्म-कथा नहीं, जीवन-गाथा है। इसमें जीवन के अनुभवों और निष्कर्षों को अनावृत्त किया गया है। इस पुस्तक की पंक्तियों में पाठक स्वयं अपने जीवन में घटित घटनाओं की अनुभूति करता चलता है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों का सूक्ष्मता और सरलता से किया गया विश्लेषण श्रीमती महिमा मेहता के संवेदनशील मन को भी उजागर कर देता है। जीवन में संघर्ष क्या होता है और उससे जूझने के लिए सकारात्मक एवं आस्थावादी दृष्टि कैसी भूमिका निभाती है, इसका दिग्दर्शन कराती है ‘परछाइयाँ’। इन परछाइयों में जो चित्र उभरते चलते हैं उनको कुशल चितेरे की भाँति उकेरने में लेखिका अत्यन्त सफल रही है।
इस संस्मरणात्मक उपन्यास में केवल घटनाएँ नहीं, अपने समय की परिक्रमा है। वह जो बीत गया है, वह अब नहीं लौटता, लेकिन स्मृतियों में बस जाता है। प्रसाद जी के ‘आँसू’ की रचना विकल वेदना के उभरने पर सम्भव हुई थी, लेकिन यह संस्मरणात्मक उपन्यास जीवन के एकाकीपन का सहचर है।
महिमा जी गद्य लेखन करती हैं और सहज-सरल भाषा में अपने संवेगों को सम्प्रेषित करती हैं। वे ऐसे समय में लिख रही हैं जब शारीरिक पीड़ा व्यथित करती है और इस एकाकीपन में स्मृतियाँ ही साथ देती हैं। पाठक आश्चर्यचकित होगा कि उन स्मृतियों के सकारात्मक पहलुओं को लेखिका किस कुशलता से चित्रित करती हैं। मूल्यों के क्षरण के इस युग में ये प्रकाश-स्तम्भ का काम करेंगी।
लेखिका का विश्वास है कि कुछ मूल्य ऐसे होते हैं जो जीवन को जीने योग्य बनाते हैं। यही मूल्य हैं जिन्हें महिमा जी ने प्रयासपूर्वक सँजोया ही नहीं, अपनी स्मृति का हिस्सा बनाया है। आज के युग में उन मूल्यों के सजीव चित्रण ने ‘परछाइयाँ’ को विशिष्टता प्रदान की है।

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Description

‘परछाइयाँ’ आत्म-कथा नहीं, जीवन-गाथा है। इसमें जीवन के अनुभवों और निष्कर्षों को अनावृत्त किया गया है। इस पुस्तक की पंक्तियों में पाठक स्वयं अपने जीवन में घटित घटनाओं की अनुभूति करता चलता है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों का सूक्ष्मता और सरलता से किया गया विश्लेषण श्रीमती महिमा मेहता के संवेदनशील मन को भी उजागर कर देता है। जीवन में संघर्ष क्या होता है और उससे जूझने के लिए सकारात्मक एवं आस्थावादी दृष्टि कैसी भूमिका निभाती है, इसका दिग्दर्शन कराती है ‘परछाइयाँ’। इन परछाइयों में जो चित्र उभरते चलते हैं उनको कुशल चितेरे की भाँति उकेरने में लेखिका अत्यन्त सफल रही है।
इस संस्मरणात्मक उपन्यास में केवल घटनाएँ नहीं, अपने समय की परिक्रमा है। वह जो बीत गया है, वह अब नहीं लौटता, लेकिन स्मृतियों में बस जाता है। प्रसाद जी के ‘आँसू’ की रचना विकल वेदना के उभरने पर सम्भव हुई थी, लेकिन यह संस्मरणात्मक उपन्यास जीवन के एकाकीपन का सहचर है।
महिमा जी गद्य लेखन करती हैं और सहज-सरल भाषा में अपने संवेगों को सम्प्रेषित करती हैं। वे ऐसे समय में लिख रही हैं जब शारीरिक पीड़ा व्यथित करती है और इस एकाकीपन में स्मृतियाँ ही साथ देती हैं। पाठक आश्चर्यचकित होगा कि उन स्मृतियों के सकारात्मक पहलुओं को लेखिका किस कुशलता से चित्रित करती हैं। मूल्यों के क्षरण के इस युग में ये प्रकाश-स्तम्भ का काम करेंगी।
लेखिका का विश्वास है कि कुछ मूल्य ऐसे होते हैं जो जीवन को जीने योग्य बनाते हैं। यही मूल्य हैं जिन्हें महिमा जी ने प्रयासपूर्वक सँजोया ही नहीं, अपनी स्मृति का हिस्सा बनाया है। आज के युग में उन मूल्यों के सजीव चित्रण ने ‘परछाइयाँ’ को विशिष्टता प्रदान की है।

About Author

महिमा मेहता

3 जुलाई, 1932 को मध्य प्रदेश के सैलाना ज़िले में जन्मीं श्रीमती महिमा मेहता ने समाजशास्त्र विषय से एम.ए. की शिक्षा ग्रहण की। तदुपरान्त किदवई गर्ल्स कॉलेज, प्रयागराज उत्तर प्रदेश में प्रवक्ता के पद पर अध्यापन कार्य किया।

साहित्य में रुचि रखनेवाली महिमा मेहता ने ‘उत्सव पुरुष : नरेश मेहता’ की रचना की।

लेखिका के शब्दों में ‘परछाइयाँ’ पुस्तक से जीवन-प्रसंगों को सँजोने का प्रयास है। ‘यदि मैं ऐसे उदात्त चरित्रों के साथ अंशमात्र भी न्याय कर सकी तो यह मेरे प्रयास की सार्थकता होगी। क्योंकि मुझे निरन्तर अपनी सार्थकता का बोध रहा है।

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