Ritikavya (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Nandkishore Naval
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
Author:
Nandkishore Naval
Language:
Hindi
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Hardback

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हिन्दी की मध्यकालीन शृंगारिक रचना की पर्याप्त कुत्सा की गई है। उसे सबसे प्रथम तो सार्वजनिक रचना माना गया है। अवस्था, परिस्थिति आदि के कारण रचना में भेद होता है, इस नियम की भी छूट उसे नहीं दी गई है। काव्य-परम्परा की भी छूट मिलती है। पर उसे किसी प्रकार की छूट नहीं दी गई और छूटकर उसकी निन्दा की गई। हिन्दी की समस्त रचना का यदि साहित्यिक दृष्टि से विचार किया जाए तो हिन्दी का शृंगार-काल ही उसका अनारोपित काव्यकाल दिखता है। उसमें जितने अधिक उत्कृष्ट कवि हुए उतने किसी युग में नहीं। उस युग की रचना भी परिमाण में बहुत है। यदि उसका सारा वाङ्मय प्रकाशित किया जाए तो युगों में प्रकाशित हो सकेगा। शृंगार की एक से एक उत्कृष्ट उक्तियाँ उसमें प्रभूत परिमाण में हैं, इतनी अधिक हैं कि संस्कृत साहित्य अत्यन्त समृद्ध होने पर भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता। इस युग की शृंगारी अभिव्यक्ति में अनुवदन संस्कृत के अनुधावन पर नहीं है। उसमें मौलिक अभिव्यक्ति बहुत अधिक है। अभिव्यक्ति का आधार-विषय एक ही होने के कारण उक्तियाँ अवश्य मिलती-जुलती हो गई हैं। पर यह कहना ठीक नहीं है कि शृंगारकाल में केवल पिष्टपेषण ही हुआ है। उसने संस्कृत को भी प्रभावित किया है।
— विश्वनाथप्रसाद मिश्र

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Description

हिन्दी की मध्यकालीन शृंगारिक रचना की पर्याप्त कुत्सा की गई है। उसे सबसे प्रथम तो सार्वजनिक रचना माना गया है। अवस्था, परिस्थिति आदि के कारण रचना में भेद होता है, इस नियम की भी छूट उसे नहीं दी गई है। काव्य-परम्परा की भी छूट मिलती है। पर उसे किसी प्रकार की छूट नहीं दी गई और छूटकर उसकी निन्दा की गई। हिन्दी की समस्त रचना का यदि साहित्यिक दृष्टि से विचार किया जाए तो हिन्दी का शृंगार-काल ही उसका अनारोपित काव्यकाल दिखता है। उसमें जितने अधिक उत्कृष्ट कवि हुए उतने किसी युग में नहीं। उस युग की रचना भी परिमाण में बहुत है। यदि उसका सारा वाङ्मय प्रकाशित किया जाए तो युगों में प्रकाशित हो सकेगा। शृंगार की एक से एक उत्कृष्ट उक्तियाँ उसमें प्रभूत परिमाण में हैं, इतनी अधिक हैं कि संस्कृत साहित्य अत्यन्त समृद्ध होने पर भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता। इस युग की शृंगारी अभिव्यक्ति में अनुवदन संस्कृत के अनुधावन पर नहीं है। उसमें मौलिक अभिव्यक्ति बहुत अधिक है। अभिव्यक्ति का आधार-विषय एक ही होने के कारण उक्तियाँ अवश्य मिलती-जुलती हो गई हैं। पर यह कहना ठीक नहीं है कि शृंगारकाल में केवल पिष्टपेषण ही हुआ है। उसने संस्कृत को भी प्रभावित किया है।
— विश्वनाथप्रसाद मिश्र

About Author

नंदकिशोर नवल

जन्म : 2 सितंबर,  1937 ( चाँदपुरा, वैशाली, बिहार)।

शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), पी-एच.डी. (निराला का काव्य-विकास)।

पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक रहे।

प्रमुख मौलिक कृतियाँ : हिंदी आलोचना का विकास, मुक्तिबोध : ज्ञान और संवेदना, निराला : कृति से साक्षात्कार, मैथिलीशरण, तुलसीदास, सूरदास, रीतिकाव्य, दिनकर : अर्धनारीश्वर कवि, समकालीन काव्य-यात्रा, मुक्तिबोध की कविताएँ : बिंब-प्रतिबिंब, पुनर्मूल्यांकन, शताब्दी की कविता, निराला-काव्य की छवियाँ, कविता के आर-पार, कविता : पहचान का संकट, निकष, रचनालोक, आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास, हिंदी कविता : अभी, बिल्कुल अभी।

प्रमुख संपादित  कृतियाँ : निराला रचनावली 

(आठ खंड), दिनकर रचनावली (आरंभिक पाँच काव्य-खंड), मैथिलीशरण संचयिता, नामवर संचयिता, स्वतंत्रता पुकारती, मुक्तिबोध : कवि-छवि, निराला : कवि-छवि, हिंदी साहित्य-शास्त्र, छायांतर, संधि-वेला, अंत-अनंत, कामायनी-परिशीलन, खुल गया है द्वार एक, हिंदी की कालजयी कहानियाँ, बीसवीं शती : कालजयी साहित्य, पदचिन्ह। 

मुख्य संपादित पत्रिकाएँ : सिर्फ, धरातल, उत्तरशती, आलोचना (सह-संपादक के रूप में),  कसौटी।

निधन : 12 मई, 2020

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