Main Shayar Badnaam (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Anand Bakhshi
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
Author:
Anand Bakhshi
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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हिन्दोस्तान को गीतों का मुल्क कहते हैं। इसीलिए कि यहाँ की अनगिनत जबानों में हर मौके के लिए अनगिनत लोकगीत हैं। अगर अनगिनत गीत न भी होते तो हिन्दोस्तान को गीतों का मुल्क कहलाने के लिए अकेले आनन्द बख़्शी साहब काफ़ी थे। वो जज़्बात की कौन-सी वादी है, वो अहसास की कौन-सी मंज़िल है, वो धड़कनों की कौन-सी रुत है, वो मोहब्बत का कौन-सा मौसम है और वो ज़िन्दगी का कौन-सा मोड़ है जहाँ सुरों के बादलों से आनन्द बख़्शी के गीतों की बरखा नहीं होती? आनन्द बख़्शी आज के लोककवि हैं। वे आज के समाज के शायर हैं।
ब्रिटिश नेशनल म्यूज़ियम में जहाँ इजिप्ट की पुरानी ममीज़
रखी हैं, जहाँ हिन्दोस्तान के बादशाहों के शराब के प्याले
और खंजर रखे हैं, वहाँ एक बहुत बड़ा हॉल है जहाँ अंग्रेज़ साहित्यकारों की मेनुस्क्रिप्ट्स, रफ़-बुक्स, नोट-बुक्स रखी
हुई हैं शो केसेज़ में। वहाँ शॉ है, बेकेन है, ऑस्कर वाइल्ड है, शेक्सपीयर है, डिकेन्स है, शेले है, कीट्स है और वहीं एक तरफ़ एक शो केस में बीटल्ज़ के हाथ का लिखा हुआ एक गीत ‘यस्टर्डे’ भी रखा हुआ है। इससे दो बातों का पता चलता है। एक तो यह कि वह क़ौम बीटल्ज़ की इज़्ज़त करती है और दूसरे यह कि उस क़ौम में इतना स्वाभिमान है, आत्मविश्वास है कि वह शेक्सपीयर के साथ पॉल मैकार्टनी की इज़्ज़त करने में झिझकती और डरती नहीं। मुझे दुःख से कहना पड़ता है कि हमारे बुद्धिजीवियों में यह आत्मविश्वास अभी तक नहीं आया है।
आज से तीन सौ साल पहले एक और आनन्द बख़्शी पैदा हुआ था जिसका नाम था नज़ीर अकबराबादी। वह आदमी बेयर फुट पोयट था। वह गाँव-गाँव जाता था। डफ़ पे गीत सुनाता था। वह गीत लिखता था। उस ज़माने की जितनी Literary anthology हैं उनमें नज़ीर का नाम नहीं लिखा गया है। नज़ीर अकबराबादी को उसके सौ बरस के बाद लोगों ने डिस्कवर किया। क्या हम दुबारा फिर सौ बरस बाद ही अपनी ग़लती को मानेंगे ? मैं अपने ख़ून से लिखके दे सकता हूँ कि एक दिन आएगा जब लोग जानेंगे कि आनन्द बख़्शी का आज के म्यूज़िक और आज की शायरी में क्या कॉन्ट्रीब्यूशन है और उस दिन आनन्द बख़्शी पे पी-एच.डी. की जाएगी। नए-नए गीतकार आएँगे नए-नए गीत लिखे जाएँगे लेकिन अब आनन्द बख़्शी दोबारा नहीं आनेवाले।
कहते हैं एक समाज उतना ही सभ्य कहा जा सकता है जितना कि वह अपने लेखक की इज़्ज़त करता है। मैं अपने नौजवान दोस्त विजय अकेला का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि उन्होंने बख़्शी साहब के गीतों का यह संकलन बना के अपने और हमारे सभ्य होने का सबूत दिया है।
—जावेद अख़्तर

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हिन्दोस्तान को गीतों का मुल्क कहते हैं। इसीलिए कि यहाँ की अनगिनत जबानों में हर मौके के लिए अनगिनत लोकगीत हैं। अगर अनगिनत गीत न भी होते तो हिन्दोस्तान को गीतों का मुल्क कहलाने के लिए अकेले आनन्द बख़्शी साहब काफ़ी थे। वो जज़्बात की कौन-सी वादी है, वो अहसास की कौन-सी मंज़िल है, वो धड़कनों की कौन-सी रुत है, वो मोहब्बत का कौन-सा मौसम है और वो ज़िन्दगी का कौन-सा मोड़ है जहाँ सुरों के बादलों से आनन्द बख़्शी के गीतों की बरखा नहीं होती? आनन्द बख़्शी आज के लोककवि हैं। वे आज के समाज के शायर हैं।
ब्रिटिश नेशनल म्यूज़ियम में जहाँ इजिप्ट की पुरानी ममीज़
रखी हैं, जहाँ हिन्दोस्तान के बादशाहों के शराब के प्याले
और खंजर रखे हैं, वहाँ एक बहुत बड़ा हॉल है जहाँ अंग्रेज़ साहित्यकारों की मेनुस्क्रिप्ट्स, रफ़-बुक्स, नोट-बुक्स रखी
हुई हैं शो केसेज़ में। वहाँ शॉ है, बेकेन है, ऑस्कर वाइल्ड है, शेक्सपीयर है, डिकेन्स है, शेले है, कीट्स है और वहीं एक तरफ़ एक शो केस में बीटल्ज़ के हाथ का लिखा हुआ एक गीत ‘यस्टर्डे’ भी रखा हुआ है। इससे दो बातों का पता चलता है। एक तो यह कि वह क़ौम बीटल्ज़ की इज़्ज़त करती है और दूसरे यह कि उस क़ौम में इतना स्वाभिमान है, आत्मविश्वास है कि वह शेक्सपीयर के साथ पॉल मैकार्टनी की इज़्ज़त करने में झिझकती और डरती नहीं। मुझे दुःख से कहना पड़ता है कि हमारे बुद्धिजीवियों में यह आत्मविश्वास अभी तक नहीं आया है।
आज से तीन सौ साल पहले एक और आनन्द बख़्शी पैदा हुआ था जिसका नाम था नज़ीर अकबराबादी। वह आदमी बेयर फुट पोयट था। वह गाँव-गाँव जाता था। डफ़ पे गीत सुनाता था। वह गीत लिखता था। उस ज़माने की जितनी Literary anthology हैं उनमें नज़ीर का नाम नहीं लिखा गया है। नज़ीर अकबराबादी को उसके सौ बरस के बाद लोगों ने डिस्कवर किया। क्या हम दुबारा फिर सौ बरस बाद ही अपनी ग़लती को मानेंगे ? मैं अपने ख़ून से लिखके दे सकता हूँ कि एक दिन आएगा जब लोग जानेंगे कि आनन्द बख़्शी का आज के म्यूज़िक और आज की शायरी में क्या कॉन्ट्रीब्यूशन है और उस दिन आनन्द बख़्शी पे पी-एच.डी. की जाएगी। नए-नए गीतकार आएँगे नए-नए गीत लिखे जाएँगे लेकिन अब आनन्द बख़्शी दोबारा नहीं आनेवाले।
कहते हैं एक समाज उतना ही सभ्य कहा जा सकता है जितना कि वह अपने लेखक की इज़्ज़त करता है। मैं अपने नौजवान दोस्त विजय अकेला का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि उन्होंने बख़्शी साहब के गीतों का यह संकलन बना के अपने और हमारे सभ्य होने का सबूत दिया है।
—जावेद अख़्तर

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आनन्द बख़्शी

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