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Kabir Granthawali : Parimarjit Paath (PB)
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Kabir Granthawali : Parimarjit Paath Hard Cover
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Purushottam Agarwal , Kabir
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Purushottam Agarwal , Kabir
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹1,195 ₹837
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3-5 days
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ISBN:
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9788119159291
Category Hindi
Category: Hindi
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कबीर-पंथियों में जो स्थान ‘बीजक’ का है, अकादमिक हलक़ों में वही स्थान श्यामसुन्दर दास द्वारा सम्पादित ‘कबीर-ग्रंथावली’ का है। तमाम विवादों और असहमतियों के बावजूद आज भी कबीर के प्रामाणिक पाठ के लिए अध्येता ‘ग्रंथावली’ का ही सहारा लेते हैं।
ऐसे में अगर यह पता चले कि ‘ग्रंथावली’ में संकलित कबीर भले ही अन्य संग्रहों के मुक़ाबले ज़्यादा पूरे हों, लेकिन जो पाठ यहाँ प्रकाशित है, उसमें अनेक ऐसी भूलें हैं, जो अर्थ का अनर्थ ही नहीं कर रहीं, बल्कि कवि के मंतव्य को ही उलट दे रही हैं, तो क्या हो…
आश्चर्य नहीं कि लगभग एक सदी से अनेक संस्करणों में व्यवहृत ‘ग्रंथावली’ के इस पक्ष पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की निगाह रुकी और उन्होंने अपने विशद अध्ययन और कबीर के प्रति अपने असाधारण प्रेम के चलते इसके परिमार्जन का बीड़ा उठाया।
यह संस्करण उसी परिमार्जित एवं शुद्धतम पाठ की प्रस्तुति है जिसका आरम्भ उनकी एक सुदीर्घ भूमिका से होता है। इस भूमिका में प्रो. अग्रवाल ने पाठ-परिमार्जन की इस पूरी श्रम-साध्य प्रक्रिया पर तो प्रकाश डाला ही है, कबीर पर अपने अब तक के अध्ययन से प्राप्त अद्यतन धारणाओं को भी सूत्र रूप में दे दिया है।
पाठकों को ज्ञात ही है कि ‘अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय’ (2009) में उन्होंने कबीर के बहाने उस मध्यकाल में भारत की आधुनिकता की पहचान की थी, जो औपनिवेशिक आधुनिकता से पहले ही भारत के लोकवृत्त में प्रकट हो चुकी थी।
‘कबीर-ग्रंथावली’ की इस प्रस्तुति में वे न सिर्फ़ कबीर की वाणी को शुद्धतम रूप में हमें दे रहे हैं, बल्कि कबीर-अध्ययन के इतिहास की गुत्थियों को सुलझाते हुए उन्हें ठीक से पढ़ने-जानने की समझ भी हमें प्रदान कर रहे हैं।
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Description
कबीर-पंथियों में जो स्थान ‘बीजक’ का है, अकादमिक हलक़ों में वही स्थान श्यामसुन्दर दास द्वारा सम्पादित ‘कबीर-ग्रंथावली’ का है। तमाम विवादों और असहमतियों के बावजूद आज भी कबीर के प्रामाणिक पाठ के लिए अध्येता ‘ग्रंथावली’ का ही सहारा लेते हैं।
ऐसे में अगर यह पता चले कि ‘ग्रंथावली’ में संकलित कबीर भले ही अन्य संग्रहों के मुक़ाबले ज़्यादा पूरे हों, लेकिन जो पाठ यहाँ प्रकाशित है, उसमें अनेक ऐसी भूलें हैं, जो अर्थ का अनर्थ ही नहीं कर रहीं, बल्कि कवि के मंतव्य को ही उलट दे रही हैं, तो क्या हो…
आश्चर्य नहीं कि लगभग एक सदी से अनेक संस्करणों में व्यवहृत ‘ग्रंथावली’ के इस पक्ष पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की निगाह रुकी और उन्होंने अपने विशद अध्ययन और कबीर के प्रति अपने असाधारण प्रेम के चलते इसके परिमार्जन का बीड़ा उठाया।
यह संस्करण उसी परिमार्जित एवं शुद्धतम पाठ की प्रस्तुति है जिसका आरम्भ उनकी एक सुदीर्घ भूमिका से होता है। इस भूमिका में प्रो. अग्रवाल ने पाठ-परिमार्जन की इस पूरी श्रम-साध्य प्रक्रिया पर तो प्रकाश डाला ही है, कबीर पर अपने अब तक के अध्ययन से प्राप्त अद्यतन धारणाओं को भी सूत्र रूप में दे दिया है।
पाठकों को ज्ञात ही है कि ‘अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय’ (2009) में उन्होंने कबीर के बहाने उस मध्यकाल में भारत की आधुनिकता की पहचान की थी, जो औपनिवेशिक आधुनिकता से पहले ही भारत के लोकवृत्त में प्रकट हो चुकी थी।
‘कबीर-ग्रंथावली’ की इस प्रस्तुति में वे न सिर्फ़ कबीर की वाणी को शुद्धतम रूप में हमें दे रहे हैं, बल्कि कबीर-अध्ययन के इतिहास की गुत्थियों को सुलझाते हुए उन्हें ठीक से पढ़ने-जानने की समझ भी हमें प्रदान कर रहे हैं।
About Author
कबीर
"जो कलि नाम कबीर न होते। लोक, बेद और कलिजुग मिलि करि भगति रसातल देते।" काशी के जुलाहे कबीर की महिमा बखानते ये शब्द गागरोन नरेश पीपा के हैं। कबीर की ऐसी महिमा का कारण यह है, कि उनकी कविता भीतर-बाहर के सबद निरन्तर को धारण करती है। प्रेम-विह्वलता और समाज-चिन्ता कबीर के लिए परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। जन्म के आधाऱ पर ऊँच-नीच तय करने वाली जीवनदृष्टियों के विपरीत कबीर मानवीय विवेक को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। पन्द्रहवीं सोलहवीं सदियों में शरीर से विद्यमान रहे कबीर अपनी शब्द-काया में आज तक विद्यमान हैं। वे केवल भारत नहीं, सारे विश्व के लिए प्रासंगिक हैं।
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