SaleHardback
Halke-Phulke
Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Pradeep Choubey
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Prabhat Prakashan
Author:
Pradeep Choubey
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹300 ₹225
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1-4 Days
In stock
Book Type |
---|
ISBN:
SKU
9789352664795
Categories Hindi, Literature & Translations
Tag #P' Creative writing and creative writing guides
Categories: Hindi, Literature & Translations
Page Extent:
16
हल्के-फुल्के में दीर्घकाय रचनाएँ चंद ही हैं, ये मजाक की संजीदगी को परत-दर-परत, आहिस्ता-आहिस्ता उघाड़ती हैं। इनमें ‘भुखमरे’ और ‘साठवाँ’ खास तवज्जुह की डिमांड करती हैं। व्यक्तिगत त्रासदी किस तरह अनुभूति की गहराई में उमड़-घुमड़कर सामुदायिक विडंबना को रूपाकर दे सकती है, इसका उम्दा नमूना। और अंत में, दो बिल्कुल अलग तरह की रचनाओं का जिक्र न करना नाइनसाफी होगी। ये दोनों हिंदुस्तानी सिनेमा के प्रति उनके गहरे लगाव और समझ की नायाब मिसाल हैं। एक, हिंदी फिल्म संगीत के स्वर्णकालीन जादूगर ओ. पी. नैयर का इंटरव्यू यह ‘अहा! जिंदगी’ के अक्तूबर 2006 के अंक में प्रकाशित हुआ था। संयोग की विडंबना कि जनवरी 2007 में नैयर साहब का इंतकाल हुआ। यह उनकी जिंदगी का आखिरी इंटरव्यू है, जो उनकी पर्सनैलिटी के मानिंद ही बिंदास है। सिने-संगीत का वह करिश्मासाज संगीतकार, जिसने सार्वकालिक मानी जानेवाली गायिका भारत-रत्न लता मंगेशकर की आवाज का कभी इस्तेमाल नहीं किया। तब भी स्वर्ण युग में अपनी यश-पताका फहराकर दिखाई। दूसरी रचना है छह दशक पूर्व प्रदर्शित हुई राजकपूर निर्मित विलक्षण कृति ‘जागते रहो’ की रसमय मीमांसा। यह रचना ‘प्रगतिशील वसुधा’ के फिल्म-विशेषांक हेतु उनसे लिखवाने का सुयोग मुझे ही हासिल हुआ था। वहाँ वे कृति के मार्मिक विश्लेषण के साथ ही कृतिकार और समूचे सिनेमा से अपने अंतरंग लगाव का बेहद दिलचस्प, बेबाक बयान करने से भी नहीं चूकते। मुझे क है कि रसिक पाठक इस पुरकशिश किताब का भरपूर लुत्फ उठाएँगे। —प्रह्लाद अग्रवाल सतना, 15 अगस्त, 2017.
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Description
हल्के-फुल्के में दीर्घकाय रचनाएँ चंद ही हैं, ये मजाक की संजीदगी को परत-दर-परत, आहिस्ता-आहिस्ता उघाड़ती हैं। इनमें ‘भुखमरे’ और ‘साठवाँ’ खास तवज्जुह की डिमांड करती हैं। व्यक्तिगत त्रासदी किस तरह अनुभूति की गहराई में उमड़-घुमड़कर सामुदायिक विडंबना को रूपाकर दे सकती है, इसका उम्दा नमूना। और अंत में, दो बिल्कुल अलग तरह की रचनाओं का जिक्र न करना नाइनसाफी होगी। ये दोनों हिंदुस्तानी सिनेमा के प्रति उनके गहरे लगाव और समझ की नायाब मिसाल हैं। एक, हिंदी फिल्म संगीत के स्वर्णकालीन जादूगर ओ. पी. नैयर का इंटरव्यू यह ‘अहा! जिंदगी’ के अक्तूबर 2006 के अंक में प्रकाशित हुआ था। संयोग की विडंबना कि जनवरी 2007 में नैयर साहब का इंतकाल हुआ। यह उनकी जिंदगी का आखिरी इंटरव्यू है, जो उनकी पर्सनैलिटी के मानिंद ही बिंदास है। सिने-संगीत का वह करिश्मासाज संगीतकार, जिसने सार्वकालिक मानी जानेवाली गायिका भारत-रत्न लता मंगेशकर की आवाज का कभी इस्तेमाल नहीं किया। तब भी स्वर्ण युग में अपनी यश-पताका फहराकर दिखाई। दूसरी रचना है छह दशक पूर्व प्रदर्शित हुई राजकपूर निर्मित विलक्षण कृति ‘जागते रहो’ की रसमय मीमांसा। यह रचना ‘प्रगतिशील वसुधा’ के फिल्म-विशेषांक हेतु उनसे लिखवाने का सुयोग मुझे ही हासिल हुआ था। वहाँ वे कृति के मार्मिक विश्लेषण के साथ ही कृतिकार और समूचे सिनेमा से अपने अंतरंग लगाव का बेहद दिलचस्प, बेबाक बयान करने से भी नहीं चूकते। मुझे क है कि रसिक पाठक इस पुरकशिश किताब का भरपूर लुत्फ उठाएँगे। —प्रह्लाद अग्रवाल सतना, 15 अगस्त, 2017.
About Author
बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रदीप चौबे का यह गद्य-संग्रह पढ़कर आप चौंक उठेंगे कि उन्हें गद्य-लेखन में भी किस कदर महारत हासिल है। यों हास्य-कवि के रूप में उन्हें जमाने भर के उनके बेशुमार चाहने वाले बखूबी जानते हैं। मेरी क्या बिसात, जो इसकी तफसील में जाऊँ। यों भी उनका हमसे या हमारा उनसे मुहब्बत का रिश्ता कायम करने का जरिया बनी थीं उनकी शानदार गजलें, जो वे बेहद दिल फरेब अंदाज में कहते हैं, लेकिन महफिलों में सुनाते हैं, दूसरों के लाजवाब अशआर और बाकमाल सुनाते हैं। उनकी अपनी गजलों का अंदाज उनकी गजलों की किताबें ‘खुदा गायब है’ और ‘चुटकुले उदास हैं’ में भरपूर मिलता है। मंचों पर शुद्ध हास्य-व्यंग्य और अकेले में गजलें उनकी अजीबो-गरीब अदा है। पर इन खूबियों-खराबियों से बिल्कुल अलग हम आशिक हैं, उनके जिंदादिल मिजाज के। हर लम्हा पूरी शिद्दत और मिठास के साथ जीने के अंदाज के। बाहर के हो-हल्ले से गुजरते हुए वे कब समाधि में पहुँच जाएँ, कहना मुश्किल है। उनकी शिद्दत और जिद्दत को आजमाना है तो मशवरा है कि गुजरिए उनकी इस किताब की रोशन गलियों से। मामूली चीजें और बातें किस कदर बरगुजीदा बयान हो जाती हैं, उनकी ओर इशारा कर रहा हूँ। ‘यहाँ भी, वहाँ भी’ और ‘ये भी, वो भी’ जैसी छोटी-छोटी रचनाओं की तरफ। आप दो-चार मिनटों में पढ़ लेंगे और घंटों सोचेंगे कि आत्म-व्यंग्य क्या है। भाई ने भिखारिन तक से अपनी खाल नुचवा ली|
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