Hindi Patrakarita Ka Itihas
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हिंदी पत्रकारिता का इतिहास भारतवर्ष में पत्रकारिता के प्रवेश के साथ ही हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत हुई। भारत में छापेखाने पहले ही आ चुके थे। बंबई में सन् 1674 में एक प्रेस की स्थापना हुई और मद्रास में सन् 1772 में एक प्रेस स्थापित हो चुका था। उस समय भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों के सामने अनेक समस्याएँ थीं, जबकि वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे। उस काल में ज्ञान के साथ-साथ समाज-सुधार की भावना भी उन लोगों में थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नए और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे, जिसके कारण नए-नए पत्र निकाले गए। हिंदी के प्रारंभिक संपादकों के सामने एक समस्या यह भी थी कि भाषा शुद्ध हो और सबको सुलभ हो। भारतीय भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं का उत्तरोतर विकास होता गया; परंतु कुछ पत्रों को ब्रिटिश सरकार की ज्यादतियों और दमन के आगे घुटने टेकने पड़े और वे बंद हो गए। हिंदी पत्रकारिता उन संपादकों एवं साहित्यिकों की ऋणी है, जिन्होंने इसे आगे बढ़ाने और उसमें निखार लाने में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। प्रस्तुत पुस्तक में उन्हें संक्षेप में याद कर लिया गया है तथा किन परिस्थितियों में उन्होंने पत्रकारिता की सेवा की, भारत के राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में पत्रकारिता की कुल मिलाकर क्या भूमिका रही, उसकी शक्ति तथा उसकी कमजोरी क्या रही—इसका विवेचन किया गया है। आशा है, इससे हिंदी-प्रेमियों और हिंदी के सुधी पत्रकारों का भरपूर ज्ञानवर्द्धन होगा और हिंदी पत्रकारिता के इतिहास से भलीभाँति परिचय होगा।.
हिंदी पत्रकारिता का इतिहास भारतवर्ष में पत्रकारिता के प्रवेश के साथ ही हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत हुई। भारत में छापेखाने पहले ही आ चुके थे। बंबई में सन् 1674 में एक प्रेस की स्थापना हुई और मद्रास में सन् 1772 में एक प्रेस स्थापित हो चुका था। उस समय भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों के सामने अनेक समस्याएँ थीं, जबकि वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे। उस काल में ज्ञान के साथ-साथ समाज-सुधार की भावना भी उन लोगों में थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नए और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे, जिसके कारण नए-नए पत्र निकाले गए। हिंदी के प्रारंभिक संपादकों के सामने एक समस्या यह भी थी कि भाषा शुद्ध हो और सबको सुलभ हो। भारतीय भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं का उत्तरोतर विकास होता गया; परंतु कुछ पत्रों को ब्रिटिश सरकार की ज्यादतियों और दमन के आगे घुटने टेकने पड़े और वे बंद हो गए। हिंदी पत्रकारिता उन संपादकों एवं साहित्यिकों की ऋणी है, जिन्होंने इसे आगे बढ़ाने और उसमें निखार लाने में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। प्रस्तुत पुस्तक में उन्हें संक्षेप में याद कर लिया गया है तथा किन परिस्थितियों में उन्होंने पत्रकारिता की सेवा की, भारत के राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में पत्रकारिता की कुल मिलाकर क्या भूमिका रही, उसकी शक्ति तथा उसकी कमजोरी क्या रही—इसका विवेचन किया गया है। आशा है, इससे हिंदी-प्रेमियों और हिंदी के सुधी पत्रकारों का भरपूर ज्ञानवर्द्धन होगा और हिंदी पत्रकारिता के इतिहास से भलीभाँति परिचय होगा।.
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